भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ - ६

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आरक्ता कलिकाल-मूर्ति कुटिला काली करालानना।
भूखी मानव-मांस की भय-भरी आतंक-आपूरिता।
उन्मत्ताक करुणा-दया-विरहिता अत्यन्त उत्तोजिता।
लोहू से रह लाल है लपकती भू-लाभ की लालसा॥4॥

देशों की, पुर-ग्राम की, नगर की देखे बड़ी दुर्दशा।
पाते हैं उसको महा पुलकिता काटे गला कोटिश:।
लीलाएँ अवलोक के प्रलय की है हर्ष होता उसे।
पी-पी प्राणिसमूह-रक्त महि की है दूर होती तृषा॥5॥

हैं सा पुर ग्राम धाम जलते, हैं दग्धा होते गृही।
है नाना नगरी विभूति बनती वर्षा हुए अग्नि की।
भू! ते अविवेक का कुफल है या है क्षमाशीलता।
जो ज्वाला बन काल है निकलती ज्वालामुखी-गर्भ से॥6॥

जो निर्जीव बनी समस्त जनता हो मज्जिता राख में।
सा वैभव से भ नगर जो ज्वालामुखी से जले।
तो क्या हैं सर के समूह सरिता में है कहाँ सिक्तता।
तो है सागर में कहाँ सरसता, कैसे रसा है रसा॥7॥

हो-हो दग्धा बनी विशाल नगरी दावाग्नि-क्रीड़ास्थली।
लाखों लोग जले-भुने, भवन की भीतें चिता-सी बलीं।
भू! ते अवलोकते प्रलय क्यों ज्वालामुखी यों की ।
क्यों होते जल-राशि पास जगती यों ज्वालमाला रहे॥8॥

दोषों को क्षम सर्वदा जगत में जो है कहाती क्षमा।
क्यों हो-हो वह कम्पिता प्रलय की दृश्यावली दे दिखा।
कैसे सो वसुधा विरक्त बन दे ज्वालामुखी से जला।
जो पाले सुजला तथैव सुफला हो शस्य से श्यामला॥9॥

नाना दानवता दुरन्त नर की, ज्वालामुखी-यंत्रणा।
ओलों का, पवि का प्रहार, रवि के उत्ताकप की उग्रता।
तो कैसे सहती समुद्र-शठता दुर्वृत्तिक दावाग्नि की।
तो होती महती न, जो न क्षिति में होती क्षमाशीलता॥10॥

होती है हरिता हरापन मिले न्या ह पेड़ का।
काली है करती अमा, अरुणता देती ऊषा है उसे।
प्राय: है करती विमुग्ध मन को हो शस्य से श्यामला।
पाके दिव्य सिता विभूति बनती है दुग्धा-धाता धारा॥11॥

आराधया बुध-वृन्द की विबुधता आधारिता वन्दिता।
है विज्ञान-विभूति भूति भव की सद्भाव से भाविता।
है सद्बुध्दि-विधायिनी गुण-भरी है सर्व-विद्यामयी।
है पात्राी प्रतिपत्तिक की प्रगति की है सिध्दि:दात्री धारा॥12॥

पाता गौरव है पयोधिक पहना मुक्तावली-मालिका।
गाती है कल कीत्तिक कान्त स्वर से सारी विहंगावली।
देते हैं उपहार पादप खडे नाना फलों को लिए।
पूजा करती है सदैव महि की उत्फुल्ल पुष्पावली॥13॥

आ-आ के घन हैं सुधा बरसते, हैं भानु देते विभा।
होती है वन-भूति धान्य दिखला सर्वांग दृश्यावली।
पाता है कमनीय अंक गिरि से दिव्याभ रत्नावली।
पाये शुभ्र सिता सदैव बनती है भूमि दिव्याम्बरा॥14॥

पाती है कमनीय कान्ति विधु से, उत्फुल्लता पुष्प से।
देता चन्दन है सुवास तन को, है चाँदनी चूमती।
लेती है मधु से महा मधुरिमा मानी मनोहारिता।
होती है सरसा सदैव रस से भींगे रसा सुन्दरी॥15॥

भू में हैं जनमे, विभूति-बल से भू के बली हो सके।
जागे भाग अनेक भोग भव के भू-भाग ही से मिले।
आये काल भगे कहीं न भर के भू-अंक में हैं पड़े।
भू से भूप पले सदैव कब भू भूपाल पाले पली॥16॥

देता है यदि भौम साथ तज तो साथी मिला सोम-सा।
होता है यदि वज्रपात बहुधा तो है क्षमा में क्षमा।
जो है भू सरसा, सहस्रकर के उत्ताकप को क्यों सहे।
जो है पास सुधा, सहस्र-फन से क्यों हो धारा शंकिता॥17॥

लाखों पाप मिले समाधिक-रज में या हैं चिता में जले।
आयी मौत, बला मनुष्य सिर की है प्रायश: टालती।
लेती है तन ही मिला न तन में या राख में राख ही।
भूलों की बहु भूल-चूक पर भी भू धूल है डालती॥18॥

संसिक्ता सरसा सरोज-वदना उल्लासिता उर्वरा।
नाना पादप-पुंज-पंक्ति-लसिता पुष्पावली-पूरिता।
लीला-आकलिता नितान्त ललिता संभार से सज्जिता।
है मुक्तावलिमंडिता मणियुता आमोदिता मेदिनी॥19॥

था सिंहासन रत्नकान्त जिनका, कान्तार में वे म।
थे जो स्वर्गविभूति, गात उनके हैं भूमिशायी हुए।
वे सोये तम में पसार पग जो अलोक थे लोक के।
वे आये मर तीन हाथ महि में भू में समाये न जो॥20॥

है अंगारक-सा कुमार उसका तेजस्विता से भरा।
सेवा है करता मयंक, सितता देती सिता है उसे।
है रत्नाकर अंक-रत्न, दिव है देता उसे दिव्यता।
है नाना स्वर्गीय भूतिभरिता है भाग्यमाना मही॥21॥

दी है भूधार ने उमासम सुता दिव्यांग देवांगना।
पाई है उसने पयोधिक-पय से लोकाभिरामा रमा।
मिट्टी से उसको मिली पति-रता सीता समाना सती।
है मान्या महिमामयी मति-मती धान्या वदान्या धारा॥22॥

हो पाते यदि भद्र, भूत-हित को जो भूल जाते नहीं।
जो भाते भव भले भाव उनको, जो भागती भीरुता।
जो होतीं उनमें नहीं कुमति की दुर्भावनाएँ भरी।
तो भारी बनते उभार जन के भू-भार होते नहीं॥23॥