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पाषाण-उर / महेन्द्र भटनागर


आज मानव का हृदय तो बन गया पाषाण !
ख़ून से विचलित नहीं होते तनिक भी प्राण !

जल गया है अग्नि में मधु स्नेह,
रिक्त अंतिम बूँद, जर्जर देह,
गिर रहा दुख के घनों से मेह,
टूट कर ढहता सुरक्षित गेह,
कष्ट-कंटक आपदाओं में फँसी है जान !

बढ़ रही है विश्व-भक्षक प्यास,
पी चुका इतना कि अटकी साँस,
है नहीं कोमल अधर पर हास,
क्रूरता, हिंसा, नहीं विश्वास,
कर्ण-भेदी गा रहा फूहड़ घृणा का गान !

उड़ रही मरुथल सरीखी धूल,
साथ उड़ते टूट सूखे फूल,
आश-तरु उखड़े सभी आमूल,
डूब जल में सब गये हैं कूल,
नाश का ज्वालामुखी फूटा, कहाँ निर्माण ?