पिछड़े हुओं की भाषा / कर्मानंद आर्य
दहाड़ते नहीं हैं उनके शब्द
चीखती नहीं हैं उनसे लगी दीवारें
बस सागर से गर्म होते हैं धीरे-धीरे
उठते हुए पहाड़
उनका हुनर छीनना मुश्किल है
लय की कविता रचते
वो गढ़ते हैं शिल्प की परिभाषा
बनैले सूअर बन खोजते हैं आत्मसम्मान
वो कुछ लोगों से कम अछूत, दयापात्र
पिछड़े, अति पिछड़े, साधनहीन
अमूमन पानी भरते सूखते हैं हलक
बस देह भाषा नहीं सूखती उनकी
डोली या अर्थी उठाने के बाद
तेज चलती हैं उनकी गर्म साँसे
वे ज्ञान के अथाह स्त्रोत
रिचाओं से कमतर नहीं उनका हुनर
सत्ता की व्यवस्था में
वो मरने वाले सैनिक, बेचने वाले दूध
ठठेरे, लुहार, हलवाहे, चरवाहे
मरने मारने वाली प्रजा
पर शासक कभी नहीं
उनके जगने का मतलब है
देश का जग जाना
अनंत पीढ़ियों का दर्द देखा है उन्होंने
बस अपने सपने को साकार होते नहीं देखा