पिता / अशोक कुमार
पिता-तुम माँ से जुदा क्यों हो
क्यों अलग हो तुम
तुम अपने इर्द-गिर्द बुनते हो एक चुप्पी
अनकहे शब्दों का शान्त पारावार।
शब्द जो माँ की आँखों में दिखते थे
और उछलते थे उसकी होठों पर
मुस्कान बनकर
तुम्हारे मूंछों के आस-पास
ठहरा होता था जमा हुआ जल
और शब्द उन खामोश सतहों पर
उथल रहे होते थे स्थिर होकर।
पिता-तुम अलग क्यों हो
जब माँ का आँचल
बनती थी जादू की छतरी
जो कर जाते थे स्नेहिल
अपनी ओट में
और हमारी उछलती-कूदती इच्छायें
लेती थीं कल्पना की उड़ान
वहीँ तुम्हारा दुशाला भी तो था
हमारे लिये जादुई आवरण
जो भनक भी न देता था
कि तुम मौजूद हो हमारे साथ
हमारे सिर पर अपने बलिष्ठ हाथों को फैलाये
किसी अनिष्ट की आशंका में
उन्हें दूर करने की जुगत बिठाये!
पिता-तुम अलग लगते हो
पर नहीं हो अलग
नहीं हो कतई जुदा
माँ की पोरों से आती ममतामयी सुगंध से
हम सने हुए थे,
तुम्हारे बलिष्ठ चौड़े सीने में था पसरा हुआ एक
लम्बा-चौड़ा बरगद
जिसके नीचे हम सह और बच सकते थे
जिन्दगी की गरमी और धूप से।
पिता-तुम अलग न हो माँ से
तुम सिर्फ़ अलग लगते हो!