पिता का लोईया / सत्यनारायण स्नेही
अपनी आंखों में
परिवार के पोषण की
जिम्मेदारियाँ बिनते
ऊन को धागे में तबदील कर
तैयार करते थे पिता
हर साल एक लोईया।
लगातार तकली घुमाते
ऊंगलियों पर पड़े छाले
साबित करते थे
उनका पिता होना
जब बच्चों को सामने बैठा कर
ऊन फ़ांदते
समझाते थे जीवन-गणित।
ऊन के एक-एक धागे में
कातते थे पिता
इन्सान और जानवर के रिश्ते
बेहतर जीवन की आस
परिवार के सपने
परिवार की उम्मीद।
पिता के सपनों में
नहीं बनते थे बच्चे
इंजनीयर और डाक्टर
नहीं सजते थे
आयातित वस्तुओं के बाज़ार
नहीं रेडिमेड की भरमार।
तकली के हर फ़ेरे में
निर्मित होता था जीवन-चक्र
बच्चों के भविष्य का निर्धारण
कर्म की सार्थकता
आत्मनिर्भरता।
ठंड के खिलाफ़
एक सशक्त हथियार
पिता का लोईया
एक जीवंत दस्तावेज़
मेहनत और उत्तरदायित्व का
धागे की अहमियत
ऊन की गरमाहट का
बचाता था सालों-साल
उंचे पहाड़ों में
करारी ठंड से।