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पिया मोर बसै गउरगढ़ मैं बसौं प्राग हों / धरनीदास

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पिया मोर बसै गउरगढ़ मैं बसौं प्राग हों
सहजहिं लागू सनेह, उपजु अनुराग हो।
असन बसन तन भूषन भवन न भावै हो।
पल-पल समुझि सुरति मन, गहवरि आवै हों
पथिक न मिलहि सजन जन, जिनहिं जनावों हो।
विहवल विकल विलखि चित, चहुँदिसि धावों हों
होई अस मोहिं लेजाय कि, ताहि ले आवै हो।
तेकरि होइबों लउँडिया, जे रहिया बतावै हो।
तबहिं त्रिया पत जाय, दोसर जब चाहै हो।
एक पुरूष समरथ धन, बहुत न चाहै हो।
धरनी गति नहिं आनि, करहु जस जानहु हो।
मिलहु प्रगट पट खोलि, भरम जनि मानहु हो।