पीड़ा की फसलें / सुशीला टाकभौरे
भूकम्प व्यथा का कारण हैं—
मैं व्यथित हूँ
मानव के प्रति मानव के
अमानवीय व्यवहार से
जो भूकम्प-सा
तहस-नहस कर देता है
मानवता के धरातल को
सदियाँ बीत गयीं
तुमने मनुष्य नहीं बनने दिया हमें—
पीड़ाएँ फसलों के साथ
उगती चली आयीं
जितना काटते रहे उन्हें
उससे कई गुना ज़्यादा उग आयीं
ओ शबरी के राम!
आँखें चुराकर
संवेदना दिखाना बन्द करो
तुम्हीं ने तो सीता को
धरती में समा जाने को मजबूर कर दिया था
तब से
विश्वास, भक्ति और प्रेम से पगी सीता
बार-बार
धरती में दफ़नाई जाती रही है
इसीलिए
पीड़ा की फसलें
उगती रही हैं—
पर आज
जानकी सब जान गयी है
वह धरती में नहीं
आकाश में जाना चाहती है
देवकी की कन्या की तरह
बिजली-सी चमक कर
सन्देश देना चाहती है—
तुम्हारी कंसीय मानसिकता के अन्त का
हे राम!
मानव-मानव के बीच
भेदभाव करना बन्द करो
बन्द करो शम्बूक का वध करना
क्योंकि
अब हम अपना सवेरा ढूँढ़ लेंगे
हमने आँखों में सूरज भरना सीख लिया है
चाँद को मुट्ठी में
भरना सीख लिया है
समय को बन्धक भी बनाना
सीख लेंगे!