पीड़ाऐं धूप सेंकतीं हैं / प्रांजलि अवस्थी
कविताओं का उजाला
अपनी हथेलियों पर धूप रख
उन दरवाजों में भी झाँक लेता है
जहाँ पीड़ाओं की चाक से आँसू कतरे जाते हैं
सुने तक नहीं जाते उनके मर्म
और वे निस्पृह भींगती रहतीं हैं
अपने ही अश्रुओं में
बिना कुछ कहे
किसी हवेली के अंधेरे कमरे की सीलती हुई
खिड़की की तरह
प्रेम के क्षितिज से धरा पर छिटकी पड़ीं
ये पीड़ाऐं
वहीं वीतरागी बन निस्पंदित पड़ी रहतीं हैं
जब तक कि इनकी आँखों में
इनके ही स्वप्न शरणार्थी न हो जायें
जब कविताओं की सुनहरी कलाकृतियाँ
इन पीड़ाओं की पीठ पर स्नेहिल चुम्बन रखतीं हैं
तो ये अपनी पीठ को
अपने पेट से इस तरह सटा लेतीं हैं
कि कोई इनकी अतृप्ति में
तृप्ति को चिन्हित न कर ले
जुगनुओं को इनके अंदर घर बनाते हुये
कोई देख न ले
दरअसल ये वही पीड़ाऐं हैं
जो दीवार की तरफ़ मुँह करे सोतीं रहतीं हैं
जिन्हें कविताओं में मार्मिक अभिव्यक्ति कहा गया है
और ये कवितायें इतनी सक्षम होतीं हैं कि
पीड़ाओं की देह पर आसमान से धूप उतार लातीं हैं
ताकि इन अनकही पीड़ाओं पर पड़े
प्रेम परिधानों को श्वेत श्याम रंग में नहीं
सुनहरे रंग में देखा जा सके
महसूस होता है जैसे
कविताओं की रोशनी में पीड़ाऐं धूप सेंकतीं हैं