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पीढ़ियोँ के बीच / केशव
Kavita Kosh से
सब चिल्लाये एक साथ
वक्त गुज़र रहा है
अपनी जेबों में सपने भर लो
पहले तो मुझे आयी हँसी
फिर मेरी आँखें
उन बूढ़े चेहरों में ढूँढने लगीं
पहियों के निशान
मेरे होंठों पर आ बैठा
भटके हुए यात्रियों का
अंतिम गीत
और चेहरों की ठंडी आग से
तपने लगे प्राण
तब मैंने कहा
वक्त ठहरा हुआ था
रंगमंच के दृश्य से
जब गुज़र रहे थे आप
उन्होंने सुना
और सुनते ही लौट गये
अपने काँचघरों में
जहाँ दिन-रात
बजती रहती हैं जंगली धुनें
नीं में की जाती हैं
कबूतरों की हत्याएँ
जागते हुए
बंद रहता है मुट्ठियों में
एक मरा हुआ देवता
और वे
काँचघरों से नहीं निकलते
क्योंकि बाहर जलता है
अकेला सूरज
भीतर अँधेरा है
पत्थर की तरह ठंडा और सख्त
पर पहचाने जाने के भय से
करता है मुक्त.