पीढ़ियों के सवाल / भागीरथ मेघवाल
खुल गयी हैं खिड़कियाँ
आने लगी है ताज़ा हवा
युगों-युगों की घुटन
अब घट रही है
तुमने तो हमें बना दिया था
अभागा और पतित
अधिकारों से वंचित
सेवा भर करने वाला
मानव-पशु
किन्तु तुम्हारा वह सच
दुनिया का सबसे बड़ा झूठ था
हम जान गये हैं कि
हम अभागे नहीं हैं
हमारा भी हक़ है, हिस्सा है
देश के धन
देश की धरती
और सत्ता में
हमें इनसे वंचित करने की
तुमने जो साज़िश की थी
उसकी अब पोल खुल चुकी है
तुम्हारे ज़ुल्मों का खाता-बही
अब हम पढ़ सकते हैं
उनका हिसाब भी माँग सकते हैं
भरपाई भी करा सकते हैं
यह सवाल हमारे अकेले का नहीं
पीढ़ियों का है
जिसका उत्तर तुम्हारे पास नहीं है
हम जानते हैं
अभी कई लोग सोये हुए हैं
तुमने उन्हें दूध में
जो अफीम मिला-मिलाकर
पिलायी थी
उसका असर एकदम जाएगा भी नहीं
फिर भी
सवेरा को तुम कब तक
रोक सकते हो?
सूरज का रथ तो चल पड़ा है
उषा की लालिमा
तुम भी तो देख रहे हो
पैसों की दीवारों
और शब्दों के अम्बारों से
उसे कब तक
ढँक सकते हो
आने वाली पीढ़ियाँ भी
बिना पेट के
पैदा होने वाली नहीं हैं
न बिना मष्तिष्क के
जब रात थी
तब तुम्हारी चल गयी
खूब डाके मार लिये
किन्तु दिन के उजाले में
यह कब तक चलाओगे?
कोटि-कोटि मानव
तुम्हारी डाकेज़नी को
कब तक करेंगे दरगुज़र
फूँका जा चुका है
संघर्ष का शंख
इस संघर्ष के समापन पर
तुम्हें सिंहासन ख़ाली करना होगा
करना ही होगा!