पुत्र के नाम / सुदर्शन प्रियदर्शिनी
मेरी मौत एक दिन
कागज का टुकड़ा
बन कर
तुम तक पहुंचेगी।
तुम शून्य में ताक कर
एक बारगी
बस रंगहीन होगे
और पल भर में
धीरे-धीरे कागज
का टुकड़ा मरोड़
कर रद्दी की
टोकरी में फेंक दोगे…।
फिर अपनी
चेतना को…
सांकल लगा कर
दिनचर्या में
लग कर भूल जाओगे
सायं तक
कि दफ्तर की
टोकरी में
तुम्हारी मां के
मरने की
मुड़ी-तुड़ी
खबर पड़ी है…।
शाम को घर
जाते-जाते एक
सिगरेट सुलगा कर
कार में बैठोगे
खिड़की का शीशा
उतार कर
धुंआ उगल
डालोगे…
और कहोगे
अपने-आप से
इतना भी क्या है
एक व्यक्ति के
मरने का दुख
जबकि रोज
अखबार के पन्नों में
कितनी ही… लाशें
लिपट कर आती हैं।
और हम बिन देखे
बिन महसूस किये
मौसम की खबर पढ़ते हैं
लॉटरी के नम्बर देखते हैं…
थियेटर में बदलने वाले
चित्रों पर हमारी दृष्टि
जाती है…
ऐसे में
एक मां के…
न रहने से
धरती… खाली
न हो जायेगी…।