पुनर्नवा / प्रतिभा सक्सेना
दर्पण नहीं
स्वयं को देख रही हूँ
तुम्हारी आँखों से!
ऐसे देखा नहीं था कभी
नई-सी लग रही हूँ अपने आप को .
तुम्हारी दृष्टि से आभासित,
मोहक सी उजास
धूप-छाँह का सलोनापन
स्निग्ध हो छा गया
झेंप-झिझक से भरे मुखमंडल पर!
ये आनन्द-दीप्त लोचन मेरे हैं क्या ?
नासिका, होंठ, धुले बिखरे केश ?
मांग की सिन्दूरी रेख,
बिंदिया पर विहँसती
माथे पर कुछ बहकी-सी .
ऐसी हूँ मैं!
जानती नहीं थी .
निहारना अपने आप को!
देखती थी शीशा
जैस कोई निरीक्षण कर रही होऊँ
सावधान सजग होकर .
पर आज अभिषेक पा रही हूँ
दो नयनों के नेह- जल का
पुलकित हो उठा रोम रोम!
तुम्हारी आँखों से अपने को देखना,
एक नया अनुभव,
नई अनुभूति जगा गया
लगा जैसे स्वयं को पहली बार देखा,
उत्सुक नयन भर,
लगा जैसे इस मुख की याद है,
पर देख आज पा रही हूँ!
तुम्हारी दृष्टि ने
कोमलता का रेशमी आवरण
ओढ़ा दिया मुझे,
कुछ विस्मित सा वह कुतूहल
समा गया मेरे भीतर,
स्वयं को देखा
तुम्हारी निर्निमेष मुग्ध चितवन
चिर-पुनर्नवता रच गई मुझमें!