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पुनर्वास / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
यकायक इतना प्रकाश
मैं कुछ भी नहीं देख पा रहा
होता जाता है चित्त चोटिल और बरसता जाता है प्रकाश मूसलाधार
मुझे प्रकाश के भीतर का दूध वापस दे दो ।
किसने फोड़ा इतनी ज़ोर से नारियल कि
इसके भीतर का पानी धुआँ हो गया
मुझे डाभ के भीतर का जल लौटा दो ।
एक नाम, दो नाम, तीन नाम, दस नाम
मुझे नामपट्टिका नहीं ठोस जलमय चेहरा दिखाओ ।
इस झाड़ी में कुछ था जो त्वचा की गंध बदल देता था
मुझे वो सब कुछ वापस करो -- सारी गंध और सारी झाड़ियाँ ।
मेरी इन्द्रियाँ मेरी देह के भीतर ही रास्ते भूल गई हैं
मुझे जाने दो अपनी इन्द्रियाँ वापस पाने
और सब कुछ यहीं- इसी देश में, इसी काल में
इसी धूल में, इसी घाम में ।