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पुरस्कार / आभा पूर्वे
Kavita Kosh से
अंधेरे में एक दीप जलाकर
मैं कब से कर रही हूँ इंतजार
रात का अंधेरा
धीरे-धीरे
बढ़ता रहा
और डसती रही मुझको काली रात
अचानक चली तेज हवा
दीपक बुझ न जाए
हाथों का घेरा बनाए
उसे घेरे रही
इस सोच में
तुम इस अंधेरे में खो न जाओ
और सुबह होने तक
मेरे दोनों हाथों पर
फफोलों के सिवा क्या शेष था।