पुरातन / अरुण कमल
मैं तुम्हारा अतिथि हूँ आज
तुम्हारे देश से आया
इस शहर की आँत में किराये की झोंपड़ी में बैठा
तुम्हारे हाथ की चाय सुड़कता
पीछे नाला है
दाहिने मैदान और झाड़
और आगे चापाकल पर बर्तनों की कतार
चारों तरफ़ मक्खियाँ
और तुम्हारे लम्बे हाथ सूखे हुए आम्रपल्लव
वे दिन गए जब तुम ग्रीष्म की दोपहर के स्तब्ध अंधेरे में
पके जामुन की गंध से श्लथ थी
वे दिन गए जब तुम कच्चे आम गोर देती चावल के ढेर में
और वे धीरे-धीरे पकते रहते
रात भर जूट फ़ैक्टरी की दरबानी से जग कर
तुम्हारा पति सो रहा है शिवालय के ओटे पर
और बच्चे ठोंगा बना रहे हैं नाले की मुंड़ेर पर
मैं भी इसी तरह गिरता-पड़ता चला आया यहाँ
अब कभी भी जीवन में न बैशाख दोपहर की नींद मिलेगी
न शरद पूर्णिमा का जागरण
खम्भे में रस्सी से बांध कर देह सो रहूंगा खड़े-खड़े।