पुराने समर-स्वप्न / वाल्ट ह्विटमैन / दिनेश्वर प्रसाद
मध्य रात्रि की निद्रा में
पीड़ा से व्याकुल अनेक मुखों के
सबसे पहले गम्भीर रूप से घायलों की दृष्टि (उस अवर्णनीय दृष्टि के)
खुली बाँहें फैलाए अपनी पीठ के बल पड़े मृतकों के
मैं स्वप्न देखता हूँ, मैं स्वप्न देखता हूँ, मैं स्वप्न देखता हूँ ।
प्रकृति के दृश्यों, मैदानों और पहाड़ों के
आँधी के बाद के उतने सुन्दर आकाश के
और रात में उतने अलौकिक प्रकाशयुक्त चन्द्रमा के
मधुर- मधुर प्रकाश फेंकते, नीचे की ओर प्रकाश फेंकते
जहाँ हम खन्दक खोदते और मिट्टी के ढेर जमा करते हैं ।
मैं स्वप्न देखता हूँ, मैं स्वप्न देखता हूँ, मैं स्वप्न देखता हूँ ।
वे बहुत पहले जा चुके हैं, चेहरे और खन्दक और मैदान,
जहाँ रक्तपात के बीच से या मृत सैनिकों से दूर मैं कठोर
भाव संयम से गुज़रा था
मैं उस समय तेज़ी से आगे बढ़ गया था — किन्तु रात्रि में
उनकी आकृतियों के
मैं स्वप्न देखता हूँ, मैं स्वप्न देखता हूँ, मैं स्वप्न देखता हूँ ।
मूल अँग्रेज़ी से अनुवाद : दिनेश्वर प्रसाद
लीजिए, अब यही कविता मूल अँग्रेज़ी में पढ़िए
Walt Whitman
Old War-Dreams
In midnight sleep of many a face of anguish,
Of the look at first of the mortally wounded, (of that indescribable look,)
Of the dead on their backs with arms extended wide,
I dream, I dream, I dream.
Of scenes of Nature, fields and mountains,
Of skies so beauteous after a storm, and at night the moon so unearthly bright,
Shining sweetly, shining down, where we dig the trenches and gather the heaps,
I dream, I dream, I dream.
Long have they pass’d, faces and trenches and fields,
Where through the carnage I moved with a callous composure, or away from the fallen,
Onward I sped at the time — but now of their forms at night,
I dream, I dream, I dream.