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पुरी : कुछ स्मृतियाँ-4 / जगदीश चतुर्वेदी

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कितना अनायास था
जब दूर समुद्र में गर्जन था
और मन्दिर के शंखों की ध्वनि
                    हवा में थी
रात्रि के अन्तिम चरण में
कोई सीमा नहीं रही थी
मेरे और उसके बीच

यात्राओं की आत्मीय स्मृति को
एक मूल्यवान क्षण ने
आत्मसात कर लिया था --
एक आदिम गन्ध में डूब गए थे दो सहयात्री ।

कोई ग्लानि नहीं थी
नहीं था कोई विषाद या पश्चाताप
एक सुख था
जैसे समुद्र का ज्वार जो आँखों में उतर आया था
उसे
अँजुरी में भर कर
पूर्ण तृप्ति पाने के लिए अधरों से लगा लिया हो ।