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पुरुष! जो मैं देखती हूँ / अज्ञेय

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पुरुष! जो मैं देखती हूँ, वह मैं हूँ नहीं, किन्तु जो मैं हूँ उसे मत ललकारो!
तुम्हें क्या यह विश्वास हो गया है कि मुझ में अनुभूति-क्षमता नहीं है?
तुम क्या सचमुच ही मानते हो कि मैं केवल मोम की पुलती हूँ, कोमल, चिकनी, बाह्य उत्ताप से पिघल सकने वाली, किन्तु स्वयं तपाने के, भस्म करने के लिए सर्वथा असमर्थ?
मुझ में भी उत्ताप है, मुझ में भी दीप्ति है, मैं भी एक प्रखर ज्वाला हूँ। पर मैं स्त्री भी हूँ, इसलिए नियमित हूँ, तुम्हारी सहचरी हूँ, इसलिए तुम्हारी मुखापेक्षी हूँ, इसलिए प्रणयिनी हूँ, इसलिए तुम्हारे स्पर्श के आगे विनम्र और कोमल हूँ।
पुरुष, जो मैं दीखती हूँ, वह मैं हूँ नहीं, किन्तु जो मैं हूँ, उसे मत ललकारो!

डलहौजी, सितम्बर, 1934