भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पुल बनते दद्दा / एम० के० मधु

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
तुम्हारी बूढ़ी आंखें
और मूंठ वाली लाठी
पुल बनते-बनते
रुक जाती हैं
दो गांवों के बीच

रिश्तों की धार
बार-बार
तेज़ हो जाती है
और बहा ले जाती है
पाये,
दद्दा! जिन्हें तुमने
बड़ी शिद्दत से खड़े किये थे

बरगद की तरह विशाल
तुम्हार क़द भी
कभी-कभी
छोटा हो जाता है
रिश्तों की छांव में
पर मेरी आंखों में
दद्दा! तुम बहुत विशाल हो
शायद,
हिमालय से भी ज़्यादा
क्योंकि मैं जानता हूँ
इस बार का प्रयास
तुम्हारा निरर्थक नहीं जायेगा
इस बार प्रयोग करोगे
अपनी हडिड्यां
और निश्चित बनोगे पुल
दोनों को जोड़ने के लिए।