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पूछ रही धनिया / मधु प्रधान
Kavita Kosh से
बिन बोले बदला करते हैं
मौसम के तेवर
कई दिनों से ठंडा है
यह लिपा -पुता चूल्हा
बिन ब्याहे लौटी
बारात का
जैसे हो दूल्हा
उम्मीदें कच्ची दीवार सी
ढहती हैं भर -भर।
बरस रहे बादल ,कहते हैं
बरस रहा सोना
खाली हैं बर्तन, घर का
खाली कोना-कोना
पूस-माघ की सर्दी
उस पर टपक रहा छप्पर।
कब हमरेहू दिन बहुरेंगे
पूछ रही धनिया
जब उधार मांगें तो
लौटा देता है बनिया
क्या बेचूँ गिरवी रक्खें हैं
घर के सब जेवर।
कुछ तो कहो प्रधान
दिखाये सपने बड़े-बड़े
एक कदम भी बढ़े नहीं
हम तो हैं यहीं पड़े
पूरी ताकत से हो हाकिम
तुमको किसका डर।