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पूछिए न भाषा से / दिनेश कुमार शुक्ल

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न कहूँ तुमसे
तो और किससे कहूँ

आता होता
मुझे कहना
तो समझना तुम्हारा
क्या हो पाता इतना प्रगाढ़

और आलिंगन...
वह तो ख़ैर होने ही थे शिथिल

शिथिल हो चले हैं
पृथ्वी के दिग्बन्ध
ज्वर की तरह चढ़ता है दिन
रतजरी-सी आती है रात
जीवन बीतता है
किन्तु वय तो
किशोर ही बनी रहती है
पूछिए न भाषा से

कहने को कितना कुछ
अनकहा रह गया
किन्तु पता है मुझे
आजीवन-मौन में
प्रलाप किया है कितना मैंने
तो ऐसे में
अब न कहूँ तुमसे
तो और किससे कहूँ!