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पूछो सूरज से क्या वह आएगा ? / अजेय

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ठिठुरता धारदार मौसम
छील-छील ले जाता है त्वचा
बींधता पेशियों को
गड़ जाता हड्डियों में/ पहुँच जाता मज्जा तक
स्नायुओं से गुज़रता हुआ
झनझना दे रहा तुम्हें
बहुत भीतर तक...................
 
सूरज से पूछो, कहाँ छिपा बैठा है?
 
बर्फ हो रही संवेदनाएँ
अकड़ रहे शब्द
कँपकपाते हैं भाव
नदियाँ चुप और पहाड़ हैं स्थिर!
कूदो
अँधेरे कुहासों में
खींच लाओ बाहर
गरमाहट का वह लाल-लाल गोला
 
पूछो उससे, क्यों छोड़ दिया चमकना?
 
जम रही हैं सारी ऋचाएँ
जो उसके सम्मान में रची गई
तुम्हारी छाती में
कि टपकेंगी आँखों से
जब पिघलेगी
जब हालात बनेंगे पिघलने के
 
कहो उससे, तेरी छाती में उतर आए!
 
छाती में उतर आए
कि लिख सको एक दहकती हुई चीख
कि चटकने लगे सन्नाटों के बर्फ
टूट जाए कड़ाके की नींद
जाग जाए लिहाफों में सिकुड़ते सपने
और मौसम ठिठुरना छोड़
मेरे आस पास बहने लगे
कल-कलगुनगुना पानी बनकर
 
पूछो उससे क्या वह आएगा?