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पूर्ण विराम / यतीश कुमार
Kavita Kosh से
दिखता है
बुद्ध के घुंघराले बालों जैसा
अंधेरे को केंद्र में दबोचे
झाँकता है सूरज पीछे से
चाँदना की लालिमाऊ
आतुर है मुस्कान लिए
खिलखिलाने -फैल जाने को
पहाड़ की ओट से आभा धीरे-धीरे
फैल रही है धान के बीचरे पर
भीतर कोलाहल है, दृश्य का
कंचे की तरह उछलते कूदते बुलबुले
निरंतर ध्वस्त हो रहे हैं
दृश्य बोल रहा है
परिदृश्य की खामोशी को
चुपके से तोड़ता
बीचरे रौंदे जा रहे हैं
पानी अंदर ही अंदर धँसता जा रहा है
कीचड़ के भीतर-बाहर
परत दर परत
मिट्टी सूखी-सूखी
फिर पानी,पत्थर और शब्द
सब ग़ायब
बुद्ध की हर लट में
सैकड़ों लहरें है
और वह बस मुस्काता है