पूर्व-स्मृति / अज्ञेय
पहले भी मैं इसी राह से जा कर फिर-फिर हूँ आया-
किन्तु झलकती थी इस में तब मधु की मन-मोहक माया!
हरित-छटामय-विटप-राजि पर विलुलित थे पलाश के फूल-
मादकता-सी भरी हुई थी मलयानिल में परिमल धूल!
पागल-सी भटकी फिरती थी वन में भौंरों की गुंजार,
मानो पुष्पों से कहती हो, 'मधुमय है मधु का संसार!'
कुंजों में तू छिपती फिरती-करती सरिता-सी कल्लोल,
व्यंग्य-भाव से मुझ से कहती, 'क्या दोगे फूलों का मोल?'
हँस-हँस कर तू थी खिल जाती सुन कर मेरी करुण पुकार-
'मायाविनि! मरीचिका है यह, या छलना, या तेरा प्यार?'
कई बार मैं इसी राह से जा फिर-फिर हूँ आया-
किन्तु झलकती थी इस में तब मधु की मन-मोहक माया!
चला जा रहा हूँ इस पथ से ले निज मूक व्यथा उद्भ्रान्त,
किन्तु आज छाया है इस पर नीरव-सा नीरस एकान्त!
पुष्पच्छटा-विहीन खड़े रोते-से लखते हैं तरुवर-
पीड़ा की उच्छ्वासों-सी कँपती हैं शाखाएँ सरसर!
बीता मधु, भूला मधु-गायन बिखरी भौंरों की गुंजार;
दबा हुआ सूने में फिरता वन-विहगों का हाहाकार!
अन्तस्तल में मीठा-मीठा गूँज रहा तेरा उपहास-
मानव-मरु में कहाँ छिपाऊँ मैं अपने प्राणों की प्यास?
कई बार मैं इसी राह से जा कर फिर-फिर हूँ आया-
किन्तु कहाँ इस में पाऊँ वह मधु की मन-मोहक माया!
दिल्ली जेल, नवम्बर, 1931