भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पूर्ववत् पुनः / पीयूष दईया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तोतला इतिवृत्त छपर छपर करता।

पानी में खेलता तो वह महावर में या रक्त में बदल बदल जाता लगता। दिन में तारे दिखायी देने लगते तो उन्हें अपनाता। सांस लेता। योजन-योजन। पथरीले डग भरता। कहीं उफनता वाचाल विवरणों में या कहीं विस्तार लेता। कमर तोड़े सर्वंसहा। काली हांड़ी में खदबदाता वाष्पवासी। ठोस से अठोस की काठिन्य कोख में आता। भटकता। अपने बनाए शेष श्लेष नामों से। पिण्ड छुड़ाता। औंधे मुंह गिरता। उसूलन ऐन फलता-फूलता। भाड़े का अनाड़ी। मुमकिन का मखौल उड़ाता। अनर्गल अर्जन करता। सिवा जीने के कोई और चारा नहीं मिलता सो निरुद्धार में ठहरा मात्र लगता। जनेऊधारी चिठ्ठियों के केंचुआ अक्षरों के आर-पार। निवेदित। हरे समंदर गोपी चंदर के खेल में।

पूर्ववत् पुनः।

न किंचित् में से।
सम्भ्रान्त। भवितव्य के।

अरजअरजी खड़कती। हृदय ह्नासता। चिंदी चिंदी। तिरस्कृत। सींचती , रोशनी। नाडियों में अकृत। पथनेत्री लोप हो जाती। पंचतत्वों को अगोरती दिगन्तदीठ तक। पराङ्मुख। भेंट किए बिना , अपना प्रतिभाग जाने बगैर। आर्त्तपगा आपसी निजस्व। अघोरी आदतों-सा। स्वस्तिलिपि पढ़ने की प्रतीक्षा में। भजते। प्रखर प्रत्याशा के प्रपातप्रहार। भूंकते भजन। कंटीले कण्ठ से निकलती टापों का पिघलता तारकोल। पसरा पसरा। निरासनामा।

ग्रस लेता विभुचाप।

सफ़ेद स्याही से सना सिसकना सुनायी देता। बूंदों से अलग समुद्र ढूंढता। मुखरित ऋतुओं पर तरसती प्रियता तकती रहती। काई लगा सन्नाटा। दुःसह प्राप्य। फुंक गये छप्पर के न जाने कैसे बचे रह गये तिनके। खोंता उतना ही बड़ा बन पाता जितनी बड़ी आंख। जमीनी जीवित के बुझौव्वल छल्लों में कहीं ऊपर उठते। अल्पता अभिषिक्त। सधता निर्वचन। नागफनी के कांटों फंसा। तात्पर्य तद्रूप। एकदम अन्तरतर। मौनी। मृत्यु से बना लगता जीवन वैसे नहीं जैसे छुरा खोल में। दण्डित का। निर्दिष्ट लक्ष्य-स्थलों का अन्तर्भेदक। कंटीली गतियों से निःसृत होता नादीदा नींव तले तक टोहता रहता।
उघड़ते उन्नयन। व्यतीत। उपेक्षित। उजाला। पार्थिव की हथौड़ी ठकठकाते। निर्दोष निर्धनता के निर्जनवास में।

आंख वह। आवाज़। काया।

कच्ची गोलियों से खेलती दिखती तो महसूसने मात्र से मितली यूं आने लगती मानो वह हरेक की त्वचा में ही थी। बंदरबांट करती। आंख मारती या लकीर पीटती। किरच किरच तृषार्त। शीतलहर बहती रहती। इतर तुच्छताओं को पोंछती। अनर्थकारी। क्षुधित कोप। दुःस्वप्न-सा भाग्य। दुर्दान्त जिघांसाएं या ऊसर ध्वनियां।
तजने में। विभव-जीव।
झिर आते चकत्ते ज्यों प्रांगण में छींटे।

टप्प से सीसे का परदा-सा पड़ जाता।