बसंत का नवागमन ,
मैं हूँ आरोहण पर सागर के अतुल वैभव में,
बड़ते हुए पोत में दक्षिण की और गौम से .
आकाश फैलता जा रहा है शांत चुपचाप
सागर हो रहा है विशाल अंतहीन
आच्छादित गहरे नीले फेन से
जैसे हो काया किसी जलचर की !
क्या सचमुच सागर मात्र जलराशि है ?
मैं कड़ी हूँ छज्जे पर पोत के
पृथ्वी तल से अट्ठारह मीटर परे
मैं हूँ बाहर पृश्वी से .
क्षितिज है एक विशाल वृक्ष
सागर नहीं है समतल .
जमघट जल;बूंदों का बना रहा वक्र
क्यों नहीं उफनता जल ऊपर ?
कैसा अद्भुत है पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण !
मैंने जाना था मात्र शब्दों में .
अब,
विश्वस्त हूँ मैं इस नैसर्गिक प्रक्रम को
देख अपनी आँखों से !
मैं हूँ जहाज में बिलकुल बीच
दक्षिण प्रशांत महासागर में
अक्षांश १४४ पूर्व
देशांतर १२ उत्तर पर !
अनुवादक: मंजुला सक्सेना