भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पृथ्वी की नाक और चिट्ठी / प्रतिभा किरण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बिस्तर के कोने पर
चुपचाप पड़ी देह
गर्म हो चली थी
किन्तु आत्मा अब भी ठण्डी थी

कानों में फुसफुसाता हुआ कोई
हैलेलूय! हैलेलूय! हैलेलूय!
और छाती पर मण्डराती हुई नीली तितली

बताओ कब देखा तुमने पृथ्वी को
हँसते हुए आखिरी बार?

गर्भ में पल रहे शिशु को
आॅक्सीजन नहीं पहुँच रहा
पृथ्वी की नाक
अभी भी जकड़ी हुई है
दोनों उङ्गलियों के बीच

स्वप्न में भागते-भागते
मुई सड़क ही खत्म हो गई
और वह किरदार निकल आया
नेत्रों से बाहर
चुप! चुप!चुप!

धीरे से चलना उसकी गालों के ढलान पर
वह आधी नींद में है
अचानक बह चले आँसू
और वह फिसल के आ गिरा नीचे

धम्म से तकिये के बगल
रखी चिट्ठी पर
और उसके भीगे शरीर से
मिट गये कुछ उपसर्ग और प्रत्यय

उसे पढ़ने मत देना यह चिट्ठी
उठाओ और वापस जाओ स्वप्न में,
ये क्या? वह गहरी नींद में है अब

दूसरे स्वप्न के कपाट खुले हैं
तुम्हारा किरदार नहीं वहाँ
सुनो! तुमने सुना नहीं क्या?

मैंने कहा पढ़ने मत देना
ले जाओ पाट दो किसी घाटी पर

ऐसी ही अनन्त चिट्ठियाँ
पृथ्वी की भुजाओं में पाटी गईं हैं
जिनके बारे में सिर्फ वही जानती है

किन्तु उसकी नाक जकड़ी हुई है
दो उङ्गलियों के बीच में