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पेड़ और छाया / गुलाब सिंह
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पेड़ मेरा था मगर
छाया तुम्हारे द्वार पर थी
क्या हुआ भाई मेरे कि
बीच में दीवार कर दी
चाहिए थी धूप दो पल
दो पलों छाया
पेड़ सूरज वही अपने
बीच में से कौन आया
मिटाकर सम्वाद सारे
मौन को लम्बी उमर दी
तनी हरदम रही अपने
अहं की पूरी प्रत्यंचा
ठूँठ ही रिश्ते रहे
खिलने न पाया कोई गुंचा
जय पराजय कुछ न दीखी
दिखा बस केवल समर ही
तीन घर के गाँव में
जलते रहे हैं तीस चूल्हे
जल गयी बारात सारी
अश्व से उतरे न दूल्हे
खोदते रह गए नीवें
उठ न पाया एक घर भी