भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पैर उठे, हवा चली। / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
Kavita Kosh से
पैर उठे, हवा चली।
उर-उर की खिली कली।
शाख-शाख तनी तान,
विपिन-विपिन खिले गान,
खिंचे नयन-नयन प्राण,
गन्ध-गन्ध सिंची गली।
पवन-पवन पावन है
जीवन-वन सावन है,
जन-जन मनभावन है,
आशा सुखशयन-पली।
दूर हुआ कलुष-भेद,
कण्टके निस्पन्ध छेद,
खुले सर्ग, दिव्य वेद,
माया हो गई भली।