भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पैहलॅ सर्ग: कैकेयी / गुमसैलॅ धरती / सुरेन्द्र 'परिमल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देव-भाव वंचित होथैं ही भरत-माय चिंतित होली।
है की होलॅ कर्म हाय रे दुश्ंिचता भरमी गेली।।
कोन लहर कैन्हॅ बेरा में आबी केॅ झकझोरी केॅ।
गेलॅ आपनॅ कर्म करी भारी पंकॅ में बोरी केॅ।।

पिछला जन्मॅ के करतब की फुटलॅ छेॅ महा सराप बनी?
या यै जन्मॅ के कर्म कोय फरलॅ छै सौंसे पाप बनी?
है पता कहाँ कुछ लागै छै कैहने है रं अघटन घटलै?
एकरा सें पैहने कैहने नी दुर्दैवें के छाती फटलै?

जिनगी भर करलॉ पुण्य-कर्म आदर पैलां रत्ती-रत्ती।
राजा के प्राणाधार बनी केॅ जीवन सार्थक पैने छी।।
तथ्यो जिनगी के शौर्य-ज्ञान तप सभे बिलैलॅ राख भेल।
ई केकरॅ एक्के झटका सें सांसे जिनगी संताप भेलॅ?

बस लोक-लाज-ममता-माया केॅ सबसें ऊपर मानी केॅ।
जीलॅ ऐलाँ सहचार-कर्म कुल के जानी पहचानी केॅ।।
लेकिन है कोन विपाक भेलै केॅहनॅ दुर्जोग घड़ी घटलॅ?
कोनो करनी के कोढ़ आय जीवन-कायाँ आबी फुटलँ?

जेकरॅ रंथॅ के घर्घर सें, दर्शन सें नयन जुड़ाय छेलै।
जेकरॅ नामॅ पर गलीं-गलीं अचरा सें फूल लुआय छेलै।।
जेकरॅ आज्ञा एकछत्र बनी साम्राज्ञी रूप दिलाय छेलै।
जेकरॅ पिपनी-संकेतॅ पर जन में जीवन लहराग छेलै।।

जे प्राणनाथ के प्राण बनी अबतक हँसलॉ अगरैलाँ भी।
प्रेमॅ के मंदिर में जिनकॅ आशा-विश्वास जगैलाँ भी।।
अंतिन में शंका-दुविधा लै यै घर केॅ हुनियों तेजलका।
हमरॅ अँचरा में उलझन के, शूलॅ के डलिया भेजलका।।

जे भरत करेजा के टुकड़ा जेकरा लेॅ सब कुछ करने छी।
ओकरॅ आँखी के धिरना सें हिरदै के कोठी भरने छी।।
मातृत्व कलंकित होलॅ छेॅ कर जोड़ी केॅ बिनती करलाँ।
रहलॅ की बाँकी जिनगी में सब व्यर्थ गेलॅ जित्तेॅ मरलाँ।।

जे कौशल्याँ सब कुछ देलकी आदर-सत्कार बढ़ावा भी।
की बितलै ओकरॅ छाती पर सब ओकरॅ गुम्मी बोलै छै।।
जौनी परिजन के इष्ट बनी केॅ सबदिन जीलॅ ऐलॅ छी।
छै ओकरे नजरों भाव अजब, काँटेॅ रं कसकै, सालै छै।।

हौ माय-बाप जें अरमानॅ तें धीया केॅ पोसने होतै।
सुनने होतै, बुझने होतै, कैन्हॅ माथॅ धुनने होतै?
बस, कलंकिनी पापिनी बनी धरती के भार बनी गेलाँ।
करनी-धरनी जैन्हॅ करलाँ सबकुछ ओन्हें पावी गेलाँ।।

आबेॅ जीवी केॅ करबॅ की? जीवन के स्वाद मरी गेलॅ।
यै अरमानॅ के चिता-बीच ग्यानॅ के मोंट जरी गेलॅ।।
मरना, बस आबेॅ मरना छेॅ दोसरॅ नै कोनों बाट यहाँ।
जरलॅ थोथनॅ लेॅ केॅ जैयॅ, की रहलॅ कोनों घाट यहाँ?

है भाव मनॅ में उठतैं ही हौ पर्दा जीवन के उठलै।
जेकरा पर गुम-सुम बैठी केॅ जगला में सपना देखै छ,ै
”छै प्रलय-काल के रूप अगम पसरी केॅ धीरें सें ऐलॅ,
जेकरा में घुप्प अन्हार हँसै, सब दिस घनघोर घटा छैलॅ;

सब जीब-जन्तु आकुल व्याकुल पीड़ा सें दौड़ै भागै छै,
सब के जानॅ पर ऐलॅ छै, बस जान बचाबै के खातिर;
हाथी, घोड़ा, खरगोश, सिंह, भालू, चीता, गेंडा, गीदर;
भय सें सब भागी रहलॅ छे सब बैर भाव बिसरैने छै;

उमड़न-घुमड़न छै बादल के उनचास हवा हहरैलॅ छै;
जोरॅ सें झंझावात हँसै ई कोन पाप घहरैलॅ छै?
घनघोर बृष्टि झन-झन-सन-सन सें भरलॅ छै हर लहर-लहर;
बादल के गर्जन-तर्जन सें हर ओर तबाही मचलॅ छै;

छै सूर्य-चान के पता कहाँ यै अंधकार के छाया में;
संहार बिथरलॅ छै सगरो आतंक भयानक माया में;
लागै छै कोनों पाप प्रलय के रूप धरी केॅ ऐलॅ छै;
अथवा हमरे संताप बड़ी केॅ सौंसे सृष्टि समैलॅ छै“;

सोचलकै भारी हिरदै सें जीवन के दोसरॅ पन्ना की?
सुख-दुख, सिरजन-संहार में हँसना की? लोर बहाना की?
जमलॅ पीड़ा पिघली-पिघली बहलै आँखी के लोरॅ सें।
प्रलय-रूप अवरूद्ध भेलै मुस्की पूवॅ के कोरॅ सें।।

फुदकी फुदकी चहक लागलै चिड़ियाँ के झुंड अटारी पर।
गैया-बछड़ा डिंकरेॅ लागलै गल्ली में, द्वारी-द्वारी पर।।
चेतना-पूर्ण धरती बनलै भड़कीला रूप सँवारी केॅ।
बीहा के पानी लागै छै जेना की कोय कुमारी केॅ।।

पागल मन छनभर शान्त भेलै बदली केॅ चिंतन धार वहाँ
शुभ-अशुभ गुजरलॅ जीवन के सुन्दरता के अम्बार वहाँ।।
‘हे माय! नै पछतावॅ तोहें जे होता छेलै ऊ होलै।
तों ओकरॅ एक निमित्त भरी“ है आकाशॅ सें के बोलै?

ऐन्हॅ पापॅ केॅ मेटै लेॅ तोरॅ हाथें है घटलॅ छै।
जै शान्त करो केॅ सब पीड़ा धरती केॅ देतै हरियाली।।
शुभ-अशुभ यह तोहें देखल्हेॅ चिन्ता में कैहने पड़ली छॅ?
तोरहै हाथे है अनहोनी दुनियाँ के खातिर होलॅ छै।।

वन-गमन राम के होना छै भूमी के भार मिटाना छै।
एकरॅ भागी जे बनलॅ छॅ सुख मानी केॅ मुस्काना छै“।।
मुस्कान राम के तिरी गेलै घहरी केॅ दूर अकाशॅ में।
निकली केॅ एक प्रकाश-पुंज आवी छितरैलै पासॅ में।।

वै दिव्य ज्ञान केॅ बोध करी केॅ मन के दुश्ंिचता मिटलै।
सन्तोष परम सुख मानी केॅ मरलॅ जीवन फेरू हँसलै।
‘भूमी के भार उतारै लेॅ जों लागलॅ जीवन हमरॅ छै।
तेॅ एक कलंकॅ के साथें कोटी कलंक भी पावन छै“।।

जे जीवन मुरझैलॅ छेलै मरलॅ-जरलॅ रं अनसधरॅ।
ऊ होलै मनभावन-पावन सोना रं सोधलॅ मद-भरलॅ।।
जेना की अधमरुवॅ खेतॅ केॅ पानी ने हरियाबै छै।
आशा केॅ ठेढ़ॅ पावी केॅ सुखलॅ जीवन लहराबै छै।।

कुछ-कुछ बहिने घटलै अनचोके भरत माय के जिनगी में।
चिंता के भार उड़ी गेलै गौरब के लपका आँधी में।।
चेतलॅ-चेतलॅ मन-वाणी सें लेकिन दुनियाँ भरमैलॅ छै।
भ्रम-माया धोखा भी मिटतै अखती तेॅ सभे भुलैलॅ छै।।

बेदॅ के बाणी सब सच छै दुनियाँ के एक नियंता छं।
जखनी धरती आकुल-व्याकुल आवी केॅ प्राण बचाबै छै।।
कैन्हॅ भ्रम-जालॅ में फँसलाँ डुबलॉ-उतरैलाँ घड़ी-घड़ी।
बुझलाँ जीवन के माया की गुथल छै कैन्ह लड़ी-लड़ी।

हो कोन रूप अविकल, चिन्मय जें बाणी में भ्रम मेटलकै।
रामॅ के अवतारी स्वरूप केॅ हमरा मनें समेटलकै।।
जे कामॅ लेॅ अबतार भेलै रामॅ के, आबेॅ बुझने छी।
हमरो कुछ-कुछ सहयोग छेलै निर्धारित येहो समझने छी।

भक्ती के एक उफान खड़ा
हिरदै सागर लहरैलॅ छै।
जेकरा में पैहलॅ राग-द्वेष
खर-पातॅ रं भठियैलॅ छै।।

हे राम! नयन सुखधाम परम
सबके आँखी के तारा।
जे सब में छै सब जेकरा में
जेकरॅ नै कूल-किनारा।।

जेकरॅ माया में कोटि ब्रह्म
ब्रह्माण्ड पूर्ण काया में।
जड़-चेतन के जे पूर्ण अंश
भरमै सिरजन छाया में।।

माया सें सटलॅ ज्ञानी
उड़लॅ पतंग रं लहरै।
हे सूत्रधार! तोरे सूता के
सँकेतॅ पर फहरै।

जे संत-सिद्ध जे जोगी,
जीवन दै, जीवन पावै।
घट घट वासी अविनासी
तोरा जानै पहचानै।।

माया छै केवल माया,
माया सें माया गुथलॅ।
माया ठगनी के माया-
जेकरा सें जीवन पललॅ।।

मायाँ जीवन झुठलावै,
जीवन पर पर्दा डाली।
अपना फंदा में फाँसी;
बिरमै छै सगरो आली।।

मोहक माया के रूपें,
मोहक ठगनी के चालें।
मोहक वाणी के मोहें
मोहै छै अजब सबालें।।

मोहॅ सें धरती भरलॅ,
पट्टी आँखी पर धरलॅ।
सब कर्म बड़ा अनदेखा;
बानर रं नाँची रहलॅ।।

मरु में मृग दौड़ लगाबै,
जेना मरीचिका पाछूँ।
भ्रम-जालॅ सें जकड़ी केॅ
बनलॅ छै सभे छुना छू।।

धरती के मोह अनोखा,
धन-दौलत के दुनियाँ में,
छै ब्यर्थ भलें, पर प्राणी;
डुबलॅ छै सुख-सपना में।।

केकरॅ के, केकरा खातिर,
अर्जन छै, बहुत कमें ही,
जानै छै सब परिवारे;
भरमैं छै यही गमें ही।।

प्रत्यक्ष बोध छेॅ हमरा,
भरतॅ लेॅ की नै करलाँ।
लेकिन भरतें की देलकॅ;
धिरना-आगिन में जरलाँ।।

भाषण दै ज्ञानी बनलॅ,
अपशब्द कही ठुकरैलकॅ।
जे पद-पावन माता के;
ओकरा छत में विसरैलकॅ।।

जनमॅ सें एखनी तक में,
की कष्ट उठैलाँ भारी।
जागी केॅ रात बितैलाँ;
सबदिन ओकरा पुचकारी।।

जेकरॅ सुख के सुख-सपना
आँखी में उड़लॅ-तिरलॅ।
जेकरॅ ममता में बेकल;
हिरदै के सागर भरलॅ।।

वें मोल चुकैलक अच्छा,
माता केॅ दुतकारी केॅ।
दूधॅ के माँछी नाखीं
बस, तुच्छ कही नारी केॅ।

मानै छी गलती होलॅ,
लेकिन केकरा लेॅ है सब?
की पुत्र सत्सला नारी;
पर पुत्र-प्रेम के आसव,

कखनू नै करेॅ सबारी,
ऊ ठूठ बनी केॅ जीयेॅ?
तनिसा गलती होला पर;
अपमान समुन्दर पीयेॅ?

लेकिन क होनी रोकेॅ
भगवान के महिमा छै।
एकरहै में आय नुकैल;
हमर गौरब-गरिमा छै।।

देखलाँ सबकुछ देखै लेॅ,
आबेॅ नै कुछ छेॅ बाँकी।
कुछ-कुछ हाथॅ से गेलॅ;
पाबै लेॅ कुछ नै बाँकी।।

तिरलै मुस्कान धरोहर,
जीवन के सुन्दर सपना।
दिल में होलै खँखरी लेॅ;
नै अच्छा व्यर्थ कलपना।।