पोखर भर दुख (कविता) / मृदुला सिंह
आते जाते देखती हूँ
रास्ते का उदास पोखर
और उस पर गुजरते
मौसमों को भी
कुमुद का बड़ा प्रेमी
पुरइन पात पर लिए प्रेम उसका
अंतस में सोख लिया करता है
और पी लिया करता है
धरती का दुख भी
तपिश के दिनों में
करेजे पर उगे उसके प्रेम साँचें को
सौदाइयों ने नोच फेंका एक दिन
और रोप दिया कमल
क्योंकि यह जरूरी था दिवाली
और बाज़ार के लिये
खिल गए देखते ही देखते
अनगिनत गुलाबी कमल
पोखर भी मुस्कुराने लगा
कमलिनी कितनी खुश थी
पीले वल्वों से सजे घाट
मेल मुलाक़ातों से उभरी खुशी
बच्चों की खिलख़िलाहट देखकर
कार्तिक बीता
और बाज़ार को भेंट हुए कमल-कमलनी
कमलनाल के ठूंठों से बिंधी
बची रही पोखर की छाती
रोपी गई सुंदरता अस्थाई थी
जो बिक गई बाजार
अब कौन आएगा इस ठाँव
ठूँठ की बस्ती में भला कौन ठहरता है
गाय गोरु आते हैं
पूछते हैं हाल
दादुर मछली और घोंघे बतियाते है मन भर
पांत में खड़े बगुले किनारे से
सुनते हैं उसके मन का अनकहा
नया फरमान आया है कि
यहाँ अब बनेगा बारात घर
फालतू जगह घेरे है
स्विमिंग पूल तो हैं
फिर शहर में पोखर का क्या काम
ओ मेरे रास्ते के साथी!
तुम्हे देख कर ही सीखती आई हूँ
दुर्दिनों में खुश रहने का राग
तुम्हारे वजूद को नष्ट कर देना
जीवन की नमी को नष्ट कर देना है
तुम्हारे जाने के बाद
बजता रहेगा साज
जैसे शहनाइयों पर धुन
किसी करुण विदा गीत की