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पौधे रोपने का मौसम / कुमार रवींद्र

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आ गया है समय
फिर पौधे रोपने का
नई पगडंडियाँ बिछाने का भी ।
 
खिड़कियों से झाँकते सूरज के लिए
खोल दो सारे दरवाज़े
और अनमने बिस्तर पर लेटी
कुर्सियों पर गुमसुम बैठी
अपनी इच्छाओं को
धूप हो जाने दो ।
जब वन में कोंपलें उगेंगीं
और गंध नीले क्षितिज हो जाएगी
तब तुम जानोगे
कि इसका अर्थ क्या है ।
 
किनारे बिछे मोतियों को
उँगलियों से उठाकर
जेब में मत डालो -
किरणों की ऋचाएँ रूठ जाएँगी
और जेब आँसुओं से भीग जाएगी ।
 
मौसम रोपने का है
बीनने का नहीं ।
आओ, रोपें हम नाज़ुक किरणों की जिज्ञासाएँ
नए-नए पंख खोलती आस्थाएँ
और घास पर बिछे
मोतियों के लिबास से
अपनी इच्छाएँ ढँक लें -
वे अधूरी चोंच खोलती वेदनाएँ
जिनकी चहक से
रात की आँख खुल गई थी ।
 
मौसम को बीजते हाथों में
पौधे काग़ज़ी न हों
और हर गंध
अखबारी बनकर न रह जाए
इसलिए ज़रूरी है
कि फील बुनती उँगलियाँ टूटी न हों
और रोशनी को बिस्तर पर बिछाती
साँस अधूरी न हो ।
 
अभी तो
मौसम को रोपना ज़रूरी है
बाद में आएगा समय
जब हम मौसम को बीनेंगे ।