प्यार और पूजा / महेश सन्तोषी
जो प्यार वर्षों पूजा ही बना रहा,
वह पूजा ही रहा, प्यार कहाँ रहा?
तुम एक ऐसी आरती बनीरहीं
जो कभी बुझी नहीं
और हम धूप बने रहे, कपूर बने रहे
प्राण तपे भी, झुलसे भी, जले भी
पर हम बराबर तुम्हारी आरती में रहे।
आयाम और भी थे, मन के, आत्मा के, समर्पण के,
इतना सरल तो नहीं था जीना उम्र भर
एक हवन की समिधा बन के,
आजीवन आँच आती रही आँखों तक,
सिलसिला आग का था, कभी धुआँ उठा, कभी जमा रहा।
जो प्यार वर्षों पूजा ही बना रहा,
वह पूजा ही रहा, प्यार कहाँ रहा?
अर्चना ही सही, पूजा ही सही,
हम तुम्हें खोज तो रहे हैं अपने अस्ताचल पर;
समय चाहे भी तो अब बदल नहीं सकेगा
हमारे प्यार का प्रारब्ध, अतीत से आकर।
चलते-चलते भी हमें अपूर्व सुख दे रहे हैं
वे धूप-से निर्मल समर्पण के वर्ष
कैसी भी हो पूजा फिर कोई वापस नहीं मांगता
पीछे नहीं छोड़ेंगे हम तुम्हारी सांसों पर, आँसुओं का कर्ज।
जैसा भी था हमारा सारा जीवन समर्पित रहा
फिर प्यार का उदयाचल रहा, या पूजा का अस्ताचल रहा
जो प्यार वर्षों पूजा ही बना रहा,
वह पूजा ही रहा, प्यार कहाँ रहा?