प्यास / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'
किताबों की दुनिया में
उतरती हूँ जब भी
बनकर कविता
करने लगती हूँ सवाल-जवाब
एक प्रेमिका कि तरह
मासूम-सी अठखेलियों के साथ
प्रेम के ताने-बाने उलझ कर
मुझे उलझा देते उन कहानियों में
जहाँ
कटार की धार तेज कर रहे होते
नायक और नायिका
मैं
बिगड़ कर
उठा लेती
इतिहास की कोई क़िताब
मासूमियत ढूँढी
मिली ही नहीं उनमें!
नहीं रखतीं वह
प्रेम कथाएँ अपने पास
वो रखतीं हैं खून से सने दस्तावेज!
सुनाई दिए मुझे उनमें से
कुछ अस्फुट स्वर!
गहरी गुफाओं की गर्त से
कुरेदते रहो,
दोहराओ मत!
सहम कर चल पड़ती हूँ
उस ढेर की ओर
जहाँ मिल जाए
वो क़िताब
जिसकी कल्पना
ज़िन्दगी के गणित ने न की हो
शरीर का विज्ञान
किसी फ़लसफ़े में न लिपटा हो
सारे रसायन ...
भौतिक सुखों से बोझिल हैं
ऐसा पाठ न पढ़ाएँ
निकल जाती हूँ उनसे
और
थाम लेती हूँ
फड़फड़ाते, नैतिकता वाले
कुछ सफ़हे
फिर अचानक
विस्तृणा से भर, उठ खड़ी होती हूँ
उन किताबों के ख़िलाफ़ जो
मेरी देह से शुरू होतीं
स्वम् देह बन जातीं ...!
और
चाव से पढ़ी जातीं हैं!
अनगिनत किताबों के ढेर को संभाले
सलाहकार और
किताबों के रक्षक बताते हैं
कि
किसी कोने में रखी अलमारी के भीतर
इंडेक्स के आख़िर में नामज़द
कुछ क़िताब हैं
जिनको पढ़ कर तुम
सीता, राधा, मरियम और फ़ातिमा बन सकती हो
हो सकता है
किसी अभिनेत्री के चरित्र का
गहन अध्ययन तुम्हें रास आए
यह समुद्र है ज्ञान का
शायद तुम्हें तार जाए
हँसती हूँ, सोचती हूँ और कहती हूँ
किताबों से बहती ज्ञानगंगा
तुम समुंदर हो गई हो और...
मेरी प्यास
रोहिणी नक्षत्र-सी है
जिसे सिर्फ़
चन्द्रमा ही चाहिए ...!