प्यास / राम सेंगर
जादूगरनी प्यास
कहाँ से कहाँ हमें ले आई !
माँ-प्रियतमा-पिता औ' भाई
बिला गई सबकी परछाईं
धूप-छाँव के रँग न छूटे
गुदड़ी हुई रजाई ।
काँटे टूटे निरे पाँव में
मिली न चिमटी कहीं गाँव में
काँटे से ही काँटा उकसाने की
जुगत लगाई ।
जमा गले में बलगम सारा
किस पर थूकें, नहीं विचारा
खरलकूट में कुचली अँगुली
मुँह में नहीं दबाई ।
सिद्ध हो गए खरहे सारे
औकातों की ध्वजा उछारे
कछुए में भुरकस बाक़ी है
हारी नहीं लड़ाई ।
नहीं परिस्थिति से बच पाए
नहीं अमरफल को ललचाए
बालक नाईं फिरे हुमक में
अमिया ले लू खाई।
बोल-भाव अनुभव से फूटे
तोड़ रहे हैं पगहे-खूँटे
कैसे प्रकट करें सच का सच
सीख रहे चतुराई।
असहयोग का पूर अनोखा
बही जा रही अपनी नौका
जो हो-सो हो समय बली के
हाथों की लम्बाई।