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प्रकाश, पतंगे, छिपकलियाँ / सुमित्रानंदन पंत

Kavita Kosh से
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वह प्रकाश, वे मुग्ध पतंगे,

ये भूखी, लोभी छिपकलियाँ,

प्रीति शिखा, उत्सर्ग मौन,

स्वार्थों की अंधी चलती गलियाँ !

 

वह आकर्षण, वे मिलनातुर,

ये चुपके छिप घात लगातीं,

आत्मोज्वल वह, विरह दग्ध वे,

ये ललचा, धीरे रिरियातीं !

 

ऊर्ध्व प्राण वह, चपल पंख वे,

रेंग पेट के बल ये चलतीं, --

इनके पर जमते तो क्या ये

आत्म त्याग के लिए मचलतीं ?

 

छि:, फलाँग भर ये, निरीह

लघु शलभों को खाते न अघातीं

नोंच सुनहले पंख निगलतीं, --

दीपक लौं पर क्या बलि जातीं ?

 

उच्च उड़ान नहीं भर सकते

तुच्छ बाहरी चमकीले पर,

महत् कर्म के लिये चाहिए

महत् प्रेरणा बल भी भीतर !

 

पर, प्रकाश, प्रेमी पतंग या

छिपकलियाँ केवल प्रतीक भर,

ये प्रवृतियाँ भू मानव की,

इन्हें समझ लेना श्रेयस्कर!

 

ये आत्मा, मन, देह रूप हैं,

साथ-साथ जो जग में रहते,

शिखा आत्म स्थित, ज्योति स्पर्श हित

अंध शलभ तपते, दुख सहते !

 

पर, प्रकाश से दूर, विरत,

छिपकली साधती कार्य स्वार्थ रत,

ऊपर लटक, सरकती औंधी,

कठिन साधना उसकी अविरत !

 

उदर देह को भरना, जिससे

मन पंखों पर उड़, उठ पाए,

आत्मा लीन रहकर प्रकाश को

मार्ग सुझाना, मन खिंच आए !

 

तुच्छ सरट से उच्च ज्योति तक

एक सृष्टि सोपान निरंतर,

जटिल जगत्, गति गूढ़ , मुक्त चिति,

तीनों सत्य,-- व्याप्त जगदीश्वर !