प्रकृति को बचाने की बात / हरेराम बाजपेयी 'आश'
एक छोटा-सा बीज
खड़ा कर देता है
बरगद जैसा विशाल वृक्ष
जो देता है घनी छाया
बदले में सहता है
ताप और झंझावाता।
वह वृक्षों का दादा है
और निभाता अपना वादा है
आओ करें उसके सम्मान और
सुरक्षा की बात।
ऊँचे-ऊँचे आकाश पर
दौड़ते-भागते बादल
उनसे गिरि एक-एक बूँद
मिलकर बन जाती है नदी
जो करोड़ों की बुझती है प्यास
सिंचाई, बिजली, खेती का आधार
सभी को करती है समान प्यार
नदी प्रदूषित न हो
अनवरत बहे
उस पर न हो कोई आघात
आओ करे नदी बचाने की बात।
धूल और धुआँ ही है धरती
और आसमान तक
उग्र हो रहा सूर्य
शीतलता गायब हो रही है चाँद की
कब्जा हो गया है पाताल, धरती
और आकाश पर
मानवकृत विज्ञान से
सीमाएँ लाँघी जा रही है
सभी जगह कहीं भी, कभी भी
विकास के नाम
प्रकृती पर हो रहे आघात
आओ करे उसे बचाने की बात।
प्रकृति के चितेरे कवि
पंत ने कहा था-
ये धरती कितना देती है
माँगने से भी कई गुना अधिक दे देती है
पर बदले में मानव देता उसे
रासायनिक प्रदूषण
उत्खनन करें पृथ्वी को बचाने की बात।
धरती, आकाश, सागर, जलवायु
सभी प्रकृति के अमूल्य उपहार
विकास के आधार
रोज होता है इनका अतुल उपयोग
खतरे में सर्जन के पाँचों तत्व
खतरे में सुबह-शाम
खतरे में हैं दिन और रात
आओ करें मानव को बचाने की बात।