प्रकृति में तलाश नहीं सामंजस्य की / निकलाई ज़बालोत्स्की
मैं कोई सामंजस्य नहीं दूँढ रहा प्रकृति में
किसी तरह का विवेकसम्मत समानुपात
देखने को नहीं मिला है मुझे
निर्मल आकाश या चट्टानों के गर्भ में।
कितना दुराग्रही है यह गहन संसार!
हताशा से भरे हवाओं के संगीत में
हृदय को सुनाई नहीं देती सुसंगत ध्वनियाँ
आत्मा को अनुभव नहीं होते सुगठित स्वर।
पर पतझर के सूर्यास्त के शांत क्षणों में
जब चुप पड़ जाती है हवा दूर कहीं
जब क्षीण आभा के आलिंगन में
अर्द्धरात्रि उतर आती है नदी की ओर,
जब दुर्दांत क्रिया-कलापों और
बेमतलब बोझिल श्रम से थककर
थकावट की सहमी उद्धिग्न अर्द्धनिद्रा में
चुप पड़ने लगता है साँवला जल।
जब अंतर्विरोधों के विराट संसार का
जी भर जाता हे निष्फल खेल से
तब जैसे पानी की अथाह गहराइयों में से
मानव पीड़ा का मूर्तरूप उठता है मेरे सामने।
और इस क्षण संतप्त प्रकृति
लेटी होती है कठिनाई से साँस लेती हुई
उसे पसंद नहीं होती हिंस्त्र स्वच्छंदता
जहाँ कोई अंतर नहीं अच्छे और बुरे में।
उसे सपनों में दिखता है टरबाइन का चमकता सिरा
और विवेकपूर्ण श्रम की लयात्मक ध्वनियाँ,
चिमनियाँ का गाना और बाँधों की लाली
और बिजली के करंट से भरे तार।
इस तरह अपनी चारपाई पर सोते हुए
विक्षिप्त लेकिन स्नेहिल माँ
छिपाती है अपने में एक सुंदर संसार
बेटे के साथ मिलकर सूर्य को देखने के लिए।