प्रक्रिया / केदारनाथ सिंह
मैं
जब हवा की तरह
दृश्यों के बीच से गुजरता हुआ
अकेला होता हूँ
तो क्षण भर के लिए
मुझे कहीं भी देखा जा सकता है
किसी भी दिशा में
किसी भी मोड़ पर
किसी भी भाषा के अज्ञात
शब्द-कोश में
पर मैं जब कहीं नहीं होता
सिर्फ़ कहीं होने की लगातार कोशिश में
सामने की भीड़ को
दूर से पहचानता हुआ
हवा के आर-पार
एक प्रश्न उछालता हूँ
और हँसता हूँ
तो न जाने क्यों
मुझे लगता है
कि गूंजहीन शब्दों के इस घने अंधकार में
मैं —
अर्थ परिवर्तन की
एक अबूझ प्रक्रिया हूँ
जिसके भीतर
ये लोग
झाड़ियाँ
बत्तखें और भविष्य
हर चीज़ एक-दूसरे में
घुली-मिली है
जड़ें रोशनी में हैं
रोशनी गंध में,
गन्ध विचारों में
विचार स्मृतियों में,
स्मृतियाँ रंगों में...
और मैं चुपचाप
इस संपूर्ण व्यतिक्रम को
भीतर संभाले हुए
चलते-चलते
झुककर
रास्ते की धूल से
एक शब्द उठाता हूँ
और पाता हूँ कि अरे
गुलाब!
(1960)