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प्रगल्भ प्रणय / मनीषा जोषी / મનીષા જોષી

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अरण्य से प्रगल्भ प्रणय में लीन
हम चल रहे थे स्वप्न में
और हमारे पीछे-पीछे
कुछ वृक्ष भी
चले आ रहे थे नींद में ।

वृक्ष शायद सुन रहे थे हमारी बातें
पर हम बे-ख़बर थे उनकी सरसराहट से ।

स्वप्न में स्वप्न के होने से भी
सुन्दर था वह
साथ हमारा होना ।

अब तुम नहीं हो
कहीं नहीं हो ।

मेरे एकाकी वन में
अब मैं सुन सकती हूँ
वृक्षों की बातें
और अब तो मैं देख सकती हूँ
वृक्षों की आत्माएँ भी ।

मेरे घने एकान्त में
अब मेरे पास आते हैं
नींद में चल रहे रानी पशु ।

मैं झाँकती हूँ इनकी करुणामय आँखों में
पर वे आँखें मुझे पार करके,
देख रही होती हैं कुछ और ।

मूर्च्छित ये वृक्ष और ये रानी पशु
अब ले जा रहे हैं मुझे — सम्मोहित
वन के एक सामूहिक स्वप्न के पास ।

मेरी चेतना
अब नहीं है सिर्फ़ मेरी ।