प्रणय-निवेदन / प्रभात पटेल पथिक
जो तुम्हारे होंठ का सौभाग्य पाकर हो सुभाषित,
मैं वही प्रियतर तुम्हारा गीत होना चाहता हूँ।
गीत का मनहर-मधुर संगीत होना चाहता हूँ।
मैं वही
चाह है मन की तुम्हारी वाम-हस्त-अनामिका में
प्रिय! तुम्हारे नाम टंकित मुद्रिका को मैं चढ़ाऊँ।
मानकर के अग्नि साक्षी जब पढ़ी जाएँ ऋचाएँ-
मुदित हो पग तुम बढ़ाओ जब प्रथम पग मैं बढ़ाऊँ।
आज्ञा दो डूबने की हृदय में हे! प्रेम-सुरसरि-
डूबकर तुम में सदा-सुपुनीत होना चाहता हूँ।
मैं वही ।
तुम मुझे स्वीकार लो या मत करो निर्णय तुम्हारा,
मैंने अपनी बात रख दी है तुम्हारी देहरी पर।
मान रख लोगी प्रिये तुम है मुझे विश्वास तुमपर,
तुम बिना निष्प्राण-सी हो जाएगी ये देह री! पर।
मन बहुत ही डर रहा है एक अनचाहे सपन से-
अधिक इससे मैं नहीं भयभीत होना चाहता हूँ।
मैं वही
प्रेम प्रिय! मेरा-तुम्हारा कैसा' है तुम जानती हो।
एक दूजे को परस्पर कितना' मन स्वीकारते हैं।
प्रेम को रण मानती यदि, तो इसे भी ध्यान रखना-
इसमे' दोनों जीतते हैं या कि दोनों हारते है।
हारने में क्या रखा है-मात्र आँसू और यादें-
मन उभय के हों मुदित वह, जीत होना चाहता हूँ।
मैं वही ।
दो नगर के प्रेम-पंछी एक ही जब नीड़ हो लें,
एक जब उनके सपन हों, एक जब उनके नयन हो।
एक ही पल जब उभय मन मुस्कुराएँ या कि रोयें-
विषय से हों भिन्न लेकिन एक जब उनके चयन हों।
क्या प्रिये! इस 'एक' में मैं, 'श्रेष्ठ-आधा' हो सकूँगा-
मैं तुम्हारे प्रीति की बस, रीत होना चाहता हूँ॥
जो तुम्हारे होंठ का सौभाग्य पाकर हो सुभाषित,
मैं वही प्रियतर तुम्हारा गीत होना चाहता हूँ।
गीत का मनहर-मधुर संगीत होना चाहता हूँ।