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प्रतिबद्धता / विश्वनाथप्रसाद तिवारी
Kavita Kosh से
गहराई बहुत थी
झाँक नहीं सकता था भीतर
भागा मैं बाहर
हाँफता हिनहिनाता गाज फेंकता
जाना नहीं था
फिर भी गया
रुकना नहीं था
फिर भी रुका
बोलना नहीं था
फिर भी बोला
झुकना नहीं था
फिर भी झुका
रास्ते थे ख़तरनाक
डरावनी आवाज़ें थीं
निर्मल नहीं था सरोवर
अमराई थी पिंजरे की तरह
सच की ओर देखने की कोशिश ज़रूर की
मगर झुलस गईं बरौनियाँ
मुश्किल था बचना
फिर भी निकल आया
प्रशिक्षित कुत्ते की तरह
आवाजें अकनता
दिशाओं को सूँघता
ऊँचे-ऊँचे विचार उठते थे भीतर
मगर मेरे पाठक !
सोचता हूँ
यदि सचमुच प्रतिबद्ध होता
तो कैसे पूरे कर पाता
जीवन के साठ बरस ?