भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रतिबिम्ब की खोज में / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज फिर मैं सागर के सामने खड़ा हूँ
कल इसी जगह
मैं अपना प्रतिबिम्ब छोड़ गया था
मैं उसे खोजने आया हूँ ।
 
अनंत जलधाराओं के द्वीपों से
सदियों पूर्ण के अनगिनत प्रतिबिम्ब
खिलखिलाकर मुझे छेड़ते हैं -
पगले कौन-सा प्रतिबिम्ब तुम्हारा है
यह या वह या और कोई ।
कोई भी प्रतिबिम्ब एक-सा नहीं है ।
प्रतिबिम्ब प्रतिबिम्ब में प्रतिबिम्बित होते-होते
अनंत बिम्ब बन गए हैं
जिनकी कोई अलग पहचान नहीं है |
 
मैं उन सभी को जोड़ना चाहता हूँ
जो मेरी पहचान थे ।
पर ...
यह अनंत बिम्ब
मेरे उन सभी बिम्बों का प्रारूप है
जिन्हें मैं अलग-अलग जीता रहा
और कभी भी पहचान न सका ।
जन्मों के इस संगम पर खड़ा
आज भी मैं उन्हें पहचान नहीं पा रहा हूँ ।
 
समय की लहरों में डूबते-उतराते
मेरे अनेक बिम्ब
मेरे आँखों में उग आये हैं ।
अपनी पहचान जताने के लिए
वे मेरी अस्थियों और चिताओं की
गवाही लाये हैं - कैसी विडंबना है ।
 
अपनी हथेली की क्रोड़ में उग आए
इस क्षण के प्रतिबिम्ब की अंजलि
जल में छोड़ते हुए मैं सोचता हूँ
शायद यही मेरी पहचान है
पर दूसरे ही क्षण
अंजलि में एक अज़नबी
खिलखिलाने लगता है
मेरी स्वयं की पहचान उस एक क्षण में स्तंभित
सागर की उस अथाह गरिमा में बह जाती है
जिसने मेरी
अनंत साँसें लहरों के अर्घ्य में समर्पित की हैं ।
 
रश्मियों के अनेकानेक बिम्ब
मेरी जिज्ञासा का समर्थन करते हैं --
कल सूर्य भी इसी जगह
अपनी छाया छोडकर गया था ।
क्षितिजों तक फैली हुई थी उसकी काया
पर आज वह उसे कहीं नहीं मिली ।
 
ऊपर-ही-ऊपर
लहरों के आलिंगन में
कल का सूर्य सदियों पूर्व चला गया है ।
मुझे लगता है
मेरी स्मृतियाँ उसी सूर्य की हैं
जो लहरों के संग बह गया है ।
कितनी रश्मियाँ
कल मैंने सूर्य के संग बिखेरी थीं -
वे सारी रश्मियाँ आज बिम्ब-प्रतिबिम्ब बन
अनंत द्वीपों के द्वार पर खड़ी हैं
और उन सभी में
रल अनंत जिज्ञासा मुस्करा रही है
जो मेरी भी हो सकती है -
शायद ... वह मेरी ही है ।