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प्रतीक्षा / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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मीरा
तुम चली गई
और मैं चातक बन गया/सेवाती का
खड़ा ताकता रहा मुँह बाये
आकंठ तृशित

मीरा
तुम्हारा निर्द्वन्द्व और निर्विकार रहना
मुझे सदा से खलता रहा है
तुमने कभी भी
मरुस्थली आग को
समझने की कोशिश नहीं की
सिर्फ तुम अपने में रही

मैं तुमसे कैसे कहूँ
कि तुम्हारी याद
मुझे पहाड़ी झील बना देती है
और मेरी देह का रक्त
बर्फ की तरह
सर्द होता चला जाता है
जो जाने कितने वर्शो से/प्रतीक्षारत है
कि कोई अपनी कोमल अंगुलियों से
उसके शांत जल पर/रेखा बनाए
घंटों
उसके पथरीले किनारे पर बैठी
तुम थी
तो कभी कुछ नहीं लगता था
अब तुम नहीं हो
तो घर का कोना-कोना

करैत की तरह डंसता है
खेत जाने का मन नहीं करता
घर के किनारे की घास
लम्बी-लम्बी हो आई हैं
तुम्हारे लम्बे लटकते बालों की तरह ही
मैं समझ नहीं पा रहा हूँ
कि तुम्हारे जाने के बाद से
आँगन की गायें
उन्हीं खेत की पगडंडियों की ओर
क्यों ताका करती हैं
जिन पगडंडियों से होकर
तुम गई थी
वे पगडंडियां भी
कितनी उदास उदास सी दिखती हैं
तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा में

मीरा !
मैं भी तो
कितना अस्तव्यस्त सा हो गया हूँ
क्या करूँ
मेरे पास द्वारिका की समृद्धि भी तो नहीं
जिसमें डूब कर मैं
कृश्ण बन सकूँ
तुम्हें भुला सकूँ