प्रतीक्षा / ज्योत्स्ना मिश्रा
मैं इतिहास की प्रतीक्षा में हूँ
अपने अधूरे वर्तमान के लिए
मुझे दस्तावेज चाहियें
अपने अस्तित्व की पहचान के लिए!
बिना मोहर लगे मैं कुछ भी नहीं
मोहर!
जाति की, प्रजाति की
देश, शहर, गाँव की
लिंग की, समाज की
वाद या विवाद की
फ़िज़ूल हैं
बेहद फ़िज़ूल
तर्क भावनाओं के
बंद हैं सभी रास्ते
पहचानी गंध वाली
आत्मीय दिशाओं के
मेरे हर प्रश्न पर
हर वाक्य पर
अध्याय पर
समकालीन सार्थकता के
मायावी उजालों की
छाया है।
दबंग चौधियाँ देने वाली
सरगर्मियों ने
हर गीत को व्यर्थ
ठहराया है
बंजर हैं प्रयास
जंगलों की
अनुमति लिए बिना,
फूल उगाने के।
दर्पणों पर लिखे हैं निर्देश
खूबसूरती बढ़ाने के।
भिन्न दिखना असामाजिक है
इसलिए बाज़ार में उपलब्ध हैं
मुखौटे एक-सा दिखाने को।
मुनादी है शहर में
कही जाए हर बात
वही और वैसे
समय के लिए मुफीद हो
जो और जैसे!
मंदिरों में स्थापित
कर दिए गए सत्य सब
बस्तियाँ झूठ के लिए निर्धारित हैं
सच को क़ैद रहना होगा
पवित्र स्थलों में,
पवित्र किताबों में।
चिन्हित कर ली गयीं है जगहें
पवित्रता के लिए भी
और इन सबके बीच
एक कोरे कागज़ पर
अधूरी, अधबुनी
अधजली कविता लिख कर मैं
प्रतीक्षा कर रहीं हूँ
किसी भोले स्वप्न की।