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प्रतीक्षा / राजराजेश्वरी देवी ‘नलिनी’

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कब से इस सूने पथ पर, बैठी हूँ नयन बिछाये।
निष्ठुर बनमाली! तेरे चरणों में ध्यान लगाये॥
तेरे स्वागत-हित, उर में, आशा का दीप जलाये।
उत्सुक हो, गिनती घड़ियाँ, पूजा का साज सजाये॥
तो भी उस मधुर मिलन की, आती न अवधि यह प्यारी।
जिसमें चित्रित है मेरी, नव सतत साधना सारी॥
उत्तप्त-तपन उपजाती, हैं आकुलता की घड़ियाँ।
अमल-कमल दल से हैं, टूटी प्राणों की लड़ियाँ॥
करुणा-सागर में बिम्बित, तेरा प्रतिबिम्ब मनोहर।
लहराता-सा इठलाता, शरदिन्दु व्यथा बिखराकर॥
अमृत की निर्झर सरिता, है एक ओर सरसाती।
फिर भी प्रणयी को क्यों कर, विरहानल है झुलसाती॥
उठतीं नैराश्य हिलोरें, ‘‘क्या नाथ न अब आवेंगे?
क्या विश्व विमोहन वंशी-स्वर श्रवण न सुन पावेंगे॥
ऐसी निश्ठुरता, निर्मम! करना क्या तुम्हें उचित है।
‘दुखियों को और दुखाना’’ ऐसा भी क्या समुचित है?