भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रतीक्षारत / विपिन चौधरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक सपना
सच होने
की बाट जोह रहा है।

जीवन अनदेखी
सफलता की आस
लगाये बैठा है।

प्रेम अपनी
अन्तिम परिणिति
चाहता है।

जामुनी हाथों को
अपने श्रम की बाट है।

इस घनघोर प्रतीक्षा के आलम में
दिन अभी भी
बहुत दूर है।

अब शायद
शाम होगी
फिर रात होगी
तब प्रतीक्षा और गहराएगी।
अभी तो
प्रतीक्षा में लीन रहने का वक्त है।

सुबह ही
देहरी पर दस्तक के बाद
कुछ उम्मीद जगेगी।
मेरा है यह सवेरा


जीवन के आलोक में
जो
घुलता गुनगुना सवेरा
खामोश सांझ
रक्तिम अंधेरे का डेरा है
वह मेरा है।

जो बार बार बन कर
उखड़ रहा है,
फिर तन कर खड़ा होता है
उसमें विश्वास मेरा है।

शब्दों में सिमटी कहानियों
की परछाइयों में झाँकता चेहरा
मेरा है।

बेहतरीनता के दौड़ से जो
अचानक बाहर हो गये
उनसे एक सवाल मेरा है।

रंग हजारों बिखरे पड़े हों
जहाँ,
वहाँ किस तूलिका पर
अधिकार मेरा है।