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प्रथम अंक / भाग 2 / रामधारी सिंह "दिनकर"

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रम्भा
बिछा हुआ है जाल रश्मि का, मही मग्न सोती है,
अभी मृत्ति को देख कर स्वर्ग को भी ईर्ष्या होती है.

मेनका
कौन भेद है, क्या अंतर है धरती और गगन में
उठता है यह प्रश्न कभी रम्भे! तेरे भी मन में

रम्भा
प्रश्न उठे या नही, किंतु, प्रत्यक्ष एक अंतर है,
मर्त्यलोक मरने वाला है, पर सुरलोक अमर है.
अमित, स्निग्ध, निर्धूम शिखा सी देवों की काया है,
मर्त्यलोक की सुन्दरता तो क्षण भर की माया है.

मेनका
पर, तुम भूल रही हो रम्भे! नश्वरता के वर को;
भू को जो आनन्द सुलभ है, नही प्राप्त अम्बर को.
हम भी कितने विवश! गन्ध पीकर ही रह जाते है,
स्वाद व्यंजनों का न कभी रसना से ले पाते है.
हो जाते है तृप्त पान कर स्वर-माधुरी स्रवण से
रूप भोगते है मन से या तृष्णा भरे नयन से.
पर, जब कोई ज्वार रुप को देख उमड़ आता है,
किसी अनिर्वचनीय क्षुधा में जीवन पड़ जाता है,

उस पीड़ा से बचने की तब राह नही मिलती है
उठती जो वेदना यहाँ, खुल कर न कभी खिलती है
किंतु, मर्त्य जीवन पर ऐसा कोई बन्ध नही है
रुके गन्ध तक, वहाँ प्रेम पर यह प्रतिबन्ध नही है

नर के वश की बात, देवता बने कि नर रह जाए,
रुके गन्ध पर या बढ कर फूलों को गले लगाए.
पर, सुर बने मनुज भी, वे यह स्वत्व न पा सकते है,
गन्धों की सीमा से आगे देव न जा सकते है.

क्या है यह अमरत्व? समीरों-सा सौरभ पीना है,
मन में धूम समेट शांति से युग-युग तक जीना है.
पर, सोचो तो, मर्त्य मनुज कितना मधु-रस पीता है!
दो दिन ही हो, पर, कैसे वह धधक-धधक जीता है!
इन ज्वलंत वेगों के आगे मलिन शांति सारी है
क्षण भर की उन्मद तरंग पर चिरता बलिहारी है.

सहजन्या
साधु! साधु! मेनके! तुम्हारा भी मन कही फंसा है?
मिट्टी का मोहन कोई अंतर में आन बसा है?
तुम भी हो बन गई महीतल पर रुपसी किसी की?
किन्ही मर्त्य नयनों की रस-प्रतिमा, उर्वशी किसी की?
सखी उर्वशी-सी तुम भी लगती कुछ मदमाती हो
मर्त्यों की महिमा तुम भी तो उसी तरह गाती हो.

रम्भा
अरी, ठीक, तूने सहजन्ये! अच्छी याद दिलाई
आज हमारे साथ यहाँ उर्वशी नही क्यों आई?

सहजन्या
वाह तुम्हें ही ज्ञात नही है कथा प्राण प्यारी की?
तुम्हीं नही जानती प्रेम की व्यथा दिव्य नारी की?
नहीं जानती हो कि एक दिन हम कुबेर के घर से
लौट रही थी जब, इतने में एक दैत्य ऊपर से
टूटा लुब्ध श्येन सा हमको त्रास अपरिमित देकर
और तुरंत उड़ गया उर्वशी को बाहों में लेकर.