प्रथम सर्ग / अतिरथी / नन्दलाल यादव 'सारस्वत'
‘हम्में की तीनो लोको तक
शक्ति कैन्हें नी सब झोकी देॅ
कुण्डल-कवच में ऊ ताकत छै
जे कालो के गति रोकी देॅ।’
‘पाण्डव-सेना में उथल-पुथल
युद्धों में मुश्किल लगै जीत
जब तक कर्णोॅ के पास कवच
कुण्डल छै अद्भुत सैन्यमीत।’
‘कवच-कुण्डले काफी छै बस
ई रण के फल बदलै लेली
हाथी के गोड़ोॅ नीचू में
की टिकतै ई फूल चमेली।’
‘जानै छी कि सेना हमरोॅ
कोय माने में कटियो नै कम
की धरती के नर-दानव केॅ
करी देवतौ केॅ दै बेदम।’
‘एक पलोॅ में तहस-नहस के
तांडव करी देॅ, परलय आबेॅ
लेकिन कर्णोॅ केॅ के जीतेॅ
जेकरा कुण्डल कवच बचावेॅ।’
‘माय-बाप रं ऊ दोनों ही
छाती-कानोॅ सें सटलोॅ छै
जन्में सें आशीष बनी केॅ
आय तांय भी नै हटलोॅ छै।’
‘आरो जब तक ई दोनों ही
कर्णोॅ के देहोॅ पर रहतै
कोनो अस्त्र सहस्त्रो छोड़ोॅ
एक अकल्ले कवचें सहतै।’
‘छूऐ सें पहिले ऊ अस्त्रे
लौटी ऐतै, टूटी जैतै
हेनोॅ हाल में फल युद्धोॅ के
की नै हार में जीत विलैतै?’
‘जानै छी कि कृष्ण पक्ष में
हमरोॅ हित लेॅ ठाड़ोॅ होलोॅ
लेकिन जब तांय कवच सुरक्षित
की करतै हुनिये तेॅ बोलोॅ।’
‘हम्में की तीनो लोको तक
शक्ति कैन्हें नी सब झोकी देॅ
कुण्डल-कवच में ऊ ताकत छै
जे कालो के गति रोकी देॅ।’
केन्होॅ चमकै कवच कुण्डलो
सूर्य छाती-कानोॅ पेॅ झूलै
आकि कोनो स्वर्ण कमलदल
काया-मानसरोवर फूलै।’
‘कहाँ कृष्ण भी बोलै कुछ छै
कुछ टोकोॅ तेॅ तभियो मौने
लागै युद्ध जीती लै जैतै
दुश्मन एकरा औने-पौने।’
‘देखै छौ दुश्मन-दल केन्होॅ
उछली-उछली भाला भाँजै
तीर-धनुष तलवार नचाबै
भोररिया दुपहरिया, साँझै।’
‘दुश्मन के बल, कर्ण-भरोसोॅ
कर्ण कवच-कुण्डल पर टिकलोॅ
ओकरा यहीं बचैलेॅ राखे
आय तलक जों छै ऊ बचलोॅ।’
‘ढाढस भले बंधाबोॅ तोहें
हमरोॅ जी भीतर सें डगमग
हिन्नें सैन्य-शिविर में तम छै
हुन्नें सैन्य-शिविर छै जगमग।’
‘कल्हे सें कर्णोॅ सेना में
केन्होॅ खुशी के गीत-नाद छै
हिन्ने तेॅ शंका ही शंका
शंके के सौ-सौ समाद छै।’
एतना कही युधिष्ठिर केरोॅ
दोनों ठोर मिली चुप होलै
जेना भीतरे-भीतर दुःख के
गाँठ-गिरह केॅ विह्वल खोलै
अर्जुन ई देखी केॅ उठलै
वीर पुरुष रं सभा बीच में
कोनो दिव्य कमल जों खिललोॅ
रहेॅ निराशाजन्य कीच में
आरो बोलेॅ लागलै-‘डर नै
जब तांय हमरोॅ साथ कृष्ण छै
राह निकलनै छै-केन्हौ केॅ
कतनो अन्धड़, आग, पवन छै।’
‘बड़ॉे-बड़ोॅ संकट में हुनिये
राह दिखैनें छै उबरै के
सब निश्चिन्त रहोॅ, नै चिन्ता
कोय्यो नै छै बात डरै के।
‘हुनियो चिन्तित होबे करतै
ई बातोॅ केॅ लैकेॅ, जानोॅ
एत्तेॅ बड़ॉे विपत्ति सम्मुख
उदासीन नै होतै; मानोॅ।’
‘अभी वहाँ पहुँचै छौं हम्में
हटेॅ, हटाबोॅ घोर निराशा
एतने बात बुझी केॅ चलियोॅ
हमरे पक्षोॅ में छै पासा।’
कौन्तेय के ई वीरवचन सें
सभा बहुत हरखित भै गेलै
युद्ध-विजय के भाव अनोखा
सबके चेहरा पर छै खेलै
भीम, नकुल, सहदेव, युधिष्ठिर
वीरभाव सें सज्जित भेलै
भाव-निराशा के पर्वत केॅ
मन के धक्का सें छै ठेलै।
लगलै जेना गहन रात में
भोर हठाते किरिन बिखेरै
कानी केॅ सुतलोॅ बुतरू पर
माय ममता के ऊंगली फेरै।