प्रपंच पर्व / अमरेंद्र
" पुनरनवी, क्यों मन करता है, पत्रा लिखँू मैं,
वैसा ही; हर शब्द-शब्द में साफ दिखूँ मैं;
नहीं चाहता, कुछ भी आज छिपाना तुमसे,
निश्चल मन का भाव-निवेदन जाना तुमसे।
" कह तो दिया तुम्हें था मैंने, क्या कुछ होना,
वही कर्ण पर अर्जुन का बस रोना-धोना।
मीननगर में रोष पार्थ का किस पर फूटा,
एक सुयोधन और कर्ण पर। बाकी झूठा।
" भीष्म-द्रोण को छोड़ सुयोधन पर झपटा था,
शेष क्रोध तो उसका बस मुझ पर उपटा था;
कामधेनु का हरण, तो केवल कूटनीति थी,
प्रकट हुई, जो श्रेष्ठ जनों की, छुपी नीति थी।
" मैंने भी कुछ सोच स्वयं को रोक लिया था,
क्षत्राहीन होने का सर पर शोक लिया था।
लगा किसी पर दया दिखाना घोर पाप है,
यहाँ हृदय का मेल-जोल व्यापार-शाप है।
" वहाँ जहाँ कि भावों पर ही ग्रहण लगा हो,
स्वर्ग जहाँ सोता हो लेकिन नर्क जगा हो;
जो विराट है, उस पर ही लघुता की छाया,
समझ रहा हूँ सब कुछ, बाकी जो भी, माया।
" पुनरनवी, कुछ और लिखूँ, पहले यह लिख लूँ,
घेर रहा जो व्यूह मुझे है, उससे निकलूँ;
मुझमें हीन भाव को भरने तुले हुए कुछ,
कुछ तो भीतर-भीतर ही और खुले हुए कुछ।
" इसीलिए अवसर पाते ही कह उठते हैं,
'सूतपुत्रा है कर्ण' इसी की जप करते हैं;
ताकि शूरता मेरे मन-तन की कुंठित हो,
मंद्राचल-सा कर्ण-भाल यह भूलुंठित हो।
" लेकिन पता नहीं है इनको, शूर-वीर जो,
बड़ ुआ, पंचानन, कोशी का पिया नीर जो;
डिगने वाला नहीं पुरुष वह क्षुद्र चाल से,
लड़ता है जो मधु-कैटभ-सा कालव्याल से।
" हँसी मुझे आती है अपने धर्मराज पर,
उन पर, जिनको गौरव है पांडव-समाज पर।
सुनो, शल्य जब पहुँचा वहाँ युधिष्ठिर आगे,
सारी सेना सौंप सुयोधन को, बड़भागे।
" कहा युधिष्ठिर ने क्या उनसे, वही कहूँगा,
व्यर्थ कथा की पृथुल धार में नहीं बहूँगा।
कहा, ' शल्य जी, अगर सुयोधन को दी सेना,
तब उससे क्या रहा मुझे कुछ लेना-देना।
' पर मेरा है एक निवेदन वह स्वीकारें,
भावी संकट के घेरे से मुझे उबारें!
दिया सुयोधन को सेना, तो क्या चिंता है,
इसमें शायद मेरा ही हित छुपा हुआ है।
' रुका नहीं जो युद्ध कहीं, बस इतना करिए,
तात, कर्ण का बनें सारथी; मेरा सुनिए;
और सारथी बन कर ही अपनी बातों से,
उसके मन को बेधे रहिए आघातों से।
' अपमानित हो हृदय कर्ण का विचलित होगा,
रण में अस्त्राकला विद्या से वंचित होगा;
समरभूमि में छिन जायेगा उसका लाघव,
और विजय पाना तब उस पर कहाँ असंभव। '
" सुना शल्य, तो हँस कर बोले, ' यही करूँगा,
वाक्अस्त्रा से सूतपुत्रा के प्राण हरूँगा। '
" पुनरनवी, मैंने यह जाना बात-बात से,
हूँ सचेत इस महाकाल में उसी रात से।
" धर्मराज का धर्म वहाँ पर टिका हुआ है,
न्याय-नीति का पुण्य जहाँ पर झुका हुआ है।
धर्मराज को ज्ञात नहीं, क्या मैं हूँ? रवि हूँ,
परशुराम के विजय धनुष से निकला पवि हूँ।
" अपशब्दों का अनल दीन को भले जलाए,
उसको क्या, जो हँसता इसको गले लगाए,
लेकिन यह जो जनाक्रोश, अवसाद-गरल है,
उसके पीछे का कारण भी नहीं सरल है।
" कठिन अस्त्रा से भी कराल है, वाणी दूषण,
वही आज ज्ञानी-पंडित के कुल का भूषण;
इससे तो धरती पर हलचल और बढ़ेगी,
अंबर तक जल जायेगा जो आग चढ़ेगी।
" वाणी के अमृत से भूतल स्वर्ग बनेगा,
महाकाव्य के महाभाव का सर्ग खिलेगा।
कृष्णा, अर्जुन, भीम, सात्यकी ये सब सारे,
समरभूमि के लिये बने आवाँ-अंगारे।
" शान्त कहाँ है, दुर्योधन भी क्रोधानल है,
शशि के ऊपर सिमट रहा तम का काजल है।
पुनरनवी, राजा विराट के विज्ञ पुरोहित,
आये थे करने को शीतल पावक लोहित।
" लेकिन बढ़ा गये वह लपटें क्रुद्ध अनल की,
बरसाया घी जहाँ ज़रूरत थी बस जल की;
लगे डराने धृतराष्ट्र को अर्जुन-बल से,
पैदल, हाथी, घोड़े, रथ के सेना-दल से।
" और बताया, ' कौरवदल क्या उसके आगे,
मारे जायेंगे अर्जुन से सभी अभागे!
तीनों लोकों में अर्जुन-सा वीर नहीं है,
पार्थ-तीर के आगे कोई तीर नहीं है।
' उचित यही होगा कि आधा राज्य इन्हें दें,
व्यर्थ भीम और कृष्ण-कोप-अभिशाप नहीं लंे! '
" पुनरनवी, क्या दूतवाक्य ऐसे होते हैं?
शान्ति चाहते, वीज युद्ध के पर बोते हैं।
" तब वैसे में चुप ही रहता, घोर असंभव,
यह तो होता सूर्यवंश का निश्चय लाघव;
कहा, ' कहाँ तक खीचेंगे अर्जुन-बल-वाचन?
कीचक की क्या कथा नहीं है ज्ञात, अपावन?
' कहा द्रोपदी ने अर्जुन से जो कुछ, कहिए!
अगर नहीं तो पार्थ-शक्ति पर चुप ही रहिए!
जैसा कि कहते हैं सब ये, कहा आपने,
छाप नहीं देखी कि सब ही लगे छापने।
' पांडव को अज्ञातवास में एक साल तक,
रहना था वन में या गिरि पर, नियत काल तक।
लेकिन वन की जगह रहे वे राजमहल में,
कौरव रहे समझते, वे तो हैं जंगल में।
' लेकिन इससे ही मुझको क्या लेना-देना,
इधर शांति की बात उधर आमंत्रित सेना।
सब कुछ मुझको ज्ञात, दु्रपद क्या चाहे मन से,
मुझसे कुछ भी छुपा नहीं, हो छुपा भुवन से।
' द्रुपद-सभा; बलराम-कृष्ण के वच पर आखिर
क्यों सात्यकि भी रह न सका अंतर से इस्थिर!
कहिए तो बलराम कहाँ से दोषी दिखते?
अगर युधिष्ठिर को ही वह कमजोर समझते।
' जो कुछ कहा उन्होंने, सबको बुरा लगा था,
'कौरव वीर-बली है' कुछ क्या ग़लत कहा था?
'शान्त भाव से बातें हो' जो कहा सही था,
डरने की थी बात कहाँ; क्या ग़लत कहा था?
" लेकिन सात्यकि वहाँ अगर फिर जीत गया था,
शांति-सुलह का अमृत सीधे रीत गया था;
कहिए, क्या पहले पांडव ने नहीं किया यह,
राजाओं से सेना माँगी, संकट को कह?
" कौरव ने जाना, तो पकड़ी राह वही फिर,
इससे हटकर राह दूसरी थी क्या आखिर?
अगर सुयोधन की गलती थी, तो इतनी थी,
माँग लिया सेना को केशव से जितनी थी?
" अगर कृष्ण को माँग लिया होता विवेक से,
सात्यकि और द्रुपद क्या दोनों कहते ऐसे?
कौरव को कमजोर समझना बड़ी भूल है,
तना नहीं है, धरती में यह गड़ा मूल है।
" पांडव या पांडव-सेना के बल की धमकी,
बस प्रलाप है उषाकाल मंे कायर मन की।
राजकोष का स्वामी ही स्वामी होता है,
रक्षक इसको पाने को फिर क्यों रोता है?
" राजपाट का बँटवारा तो कौरव-मन पर,
इसका निश्चय नहीं करेगा पार्थ धनुर्धर। "
पुनरनवी, मेरी बातों से चिढ़ी सभा थी,
नहीं क्रोध में भीष्म, यहाँ तक कृपाचार्य भी।
" क्या इतनी-सी बात भीष्म भी नहीं समझते,
कृपाचार्य या विदुर महापंडित के रहते!
मन में तो आया यह कह दें बिना छुपाए,
बड़े हितैषी, जो पांडव के सम्मुख आए.
" जो पांडव पर दया द्रोण को बढ़ कौरव से,
दे देते क्यों नहीं, लिया जो राज्य दु्रपद से?
लेकिन चुप रह गया बड़ों का मान बचाए,
तब भी मैं चुप रहा, वहाँ जब संजय आए.
" आए, तो बस यही कहा उस भरी सभा में,
धौंस भरी वाणी में सब कुछ पार्थ-प्रभा में।
कहा, ' कर्ण से कहने ही भेजा है मुझको,
(कुछ ऐसे कि पड़े सुनाई सब कुछ सबको)
' मन्द बुद्धि के सूतपुत्रा का काल निकट है,
पांडव का बल रोके रखना बहुत विकट है। '
" सुनते ही यह वचन शिराएँ फूल गई थीं,
नीति-प्रीति की मालाएँ खुल झूल गई थीं।
" लेकिन स्वयं को रोका, जी को नहीं हिलाया,
हिल जाती धरती ही सारी। धर्म निभाया;
भरते रहे विरुद संजय पांडव-केशव के,
और सिले के सिले रहे थे मुँह भी सबके.
" लगा सोचनेµनागवंश के कुल का घाती,
संजयमुख से बोल रहा है वह सम्पाती।
कहते, फिर कहवाते भी हो सूत मुझे तुम,
नाच रही है मृत्यु तुम्हारे सर पर छुम-छुम।
' अगर कृष्ण के कारण ही तुम बच जाओगे,
बच के भी तुम कीर्ति-कर्ण की क्या पाओगे?
राजवंश की कथा-कहानी में तुम होगे,
मुझे लोक के कंठ-कंठ में तुम पाओगे।
' तेजहीन होकर जीना भी क्या जीना है,
कालकूट को यह तो जीते जी पीना है।
प्राणहीन हूँगा लेकिन प्राणों में हूँगा,
दीन-हीन को नई प्रेरणा से भर दूँगा।
' क्या तुम दोगे, बोलो अर्जुन, जी करके ही,
अगर बचोगे, तो समझो, हैं केशव स्नेही।
शांतिदूत के मुख से धमकी समर विकट की,
देख रहा हूँ कुंजरपुर से छाया नट की।
" केशव की बस और प्रतीक्षा है अब बाकी,
माया भी उठने देते हैं उस महिमा की।
रण ही चाह रहे हो अर्जुन, तो रण होगा,
तुम होगे, या मैं हूँगा, मेरा प्रण होगा।
" पुनरनवी, न जाने कितना सोच गया था,
उस क्षण मेरे रोम-रोम में समर मचा था।
मन का समर रुका था, केशव जब आये थे,
मेरे सारे भाव छटे, जो भी छाये थे।
" पर सात्यकि था साथ इसीसे भय उपजा था,
शंकाओं के नए बवंडर को सिरजा था;
यह कैसी है शांति, समर को साथ लिये हैं,
प्रेमी हैं कैसे वह, जो भयभीत किये हैं?
" आतंकित कर गया सुयोधन को भी होगा,
क्या कोई जानेगा, उसने जो-जो भोगा।
संजय की वह बात चुभी तो होगी निश्चय,
'राज्य कहाँ से होगा? होगा कौरव का क्षय'
' शिवि-प्रपौत्रा सत्यक का सात्यकि; क्या फल होगा
क्या समझेगा मूढ़ सुयोधन, क्या कल होगा'
" संजय की बातों से आहत वहाँ सुयोधन,
जो कुछ सोचा होगा वह क्या रहता गोपन।
" सोचा होगा ' यही उचित है, उचित समय है,
केशव को बन्दी मैं कर लूँ, इसमें जय है;
और इधर बन्दी होते ही खेल पक्ष में,
पांडव के राजा भी होंगे कहाँ रक्ष में। '
" कितना दीन दिखाता था वह वीर सुयोधन,
चुप कैसे रहता मैं करने से उद्बोधन?
कहा, ' किया जो संजय ने अर्जुन-रथ-वर्णन,
इसमें क्या आकर्षण का दिखता है बंधन?
' रही समर की बात, पितामह यह भी सुनिए,
प्राप्त हुआ ब्रह्मास्त्रा मुझे भी है, यह गुनिए!
मत्स्य और पांचाल, कुरुष ही क्या कर लेंगे,
एक वाण से नरक द्वार पर पहुँचा देंगे। '
" सुना मुझे तो उबल पड़े थे शान्त पितामह,
हिल जाते थे हाथ, पैर, गर्दन तक रह-रह।
कहने लगे, ' कर्ण तुम खांडव वन को सुमरो,
अपने बल के अहंकार-वन में मत विचरो!
' चुन-चुन कर मारेगा अर्जुन; तुमको पहले,
आज सभा में जितना भी चाहे, वह कहले!
कौरव की रक्षा क्या तुमसे होगी! जाना,
अपने प्राणों की रक्षा में विजय उठाना।
' जहाँ पार्थ है, केशव वही खड़े, यह जानो,
उस सत्ता के पुरुष रूप को तुम पहचानो!
कालबद्ध हो कर्ण, नहीं तुम जान सकोगे,
स्वयं मृत्यु-पथ के पथगामी, क्या कर लोगे? '
" कहते गये मुझे वह क्या-क्या, कहना मुश्किल,
व्याप गया था भरी सभा में माहुर फेनिल।
रहना वहाँ कठिन था मेरा क्रोध-रोष में,
धैर्य कहीं भी शेष नहीं था हृदय-कोष में।
" कहा, ' पितामह, खांडव वन की आग अभी भी,
जलती है जो प्राणों में क्या बुझे कभी भी?
और जहाँ तक केशव की है बात, ज्ञात है,
घोर तमस में पीड़ित जग में उठा प्रात है।
' पुण्डरीक, माधव, दामोदर, पुरुषोत्तम जो,
जग कहता गोविन्द और मधुसूदन भी तो;
इससे भी कुछ अधिक समझता हूँ केशव को,
रखना बहुत कठिन है सब छवि के वैभव को।
" लेकिन मेरी खातिर जो कुछ कहा आपने,
मेरे भीतर एक शपथ है लगी व्यापने।
सुनिए तात, पितामह मेरी यही शपथ है,
जहाँ आप हैं, दूर-दूर ही मेरा पथ है।
' किसी सभा में या फिर रण में साथ न होना,
हीन वचन को हरदम क्या कांधे पर ढोना।
रखता हूँ यह धनुष-वाण, अब नहीं मिलूँगा,
जब न दिखेंगे आप, युद्ध में तभी दिखूँगा।
" पुनरनवी, लौट आया मैं कह सभाभवन से,
उस दिन मैं सचमुच ही टूटे भारी मन से;
उस दिन जाना, मायानगरी यह कुंजरपुर,
भेद यहाँ कर पाना मुश्किल कौन असुर-सुर?
" सब ही यहाँ मुखौटों में सज्जित, सुन्दर-से,
भीतर जो है, तप्त वही, शीतल बाहर से।
कुछ दिनों तक रहा बहुत बेचैन अयन में,
लगा अकेले टूट रहा हूँ भरे भुवन में।
" और तभी संदेश मिला, केशव आएंगे,
अटके हुए विपथगामी को समझाएंगे।
मन को कुछ-कुछ शांति मिली विश्वास हुआ था,
लेकिन क्या था ज्ञात, पुनः परिहास हुआ था।
" केशव आये मिले विदुर से, खाना खाया,
कुरुनन्दन को बहु विधि से समझा, समझाया;
यह भी कहा, ' पार्थ से लड़ना क्या है वश में?
पांडव से जो संधि करोगे, जीवन यश में। '
" वही पुरोहित-संजय की वाणी चढ़ आई,
अर्जुन की महिमा की खुलकर कथा सुनाई.
यह भी कहा ' कर्ण या कृप ही काम न देंगे,
भीष्म, द्रोण ही क्या अर्जुन के प्राण हरेंगे?
' भूलो नहीं सुयोधन, सात्यकि के बल हो तुम,
संधि-मार्ग को छोड़ पकड़ते हो खल को तुम।
आधा राज्य विभाजित करना जो खलता है,
पाँच ग्राम देने में फिर क्यूँ जी जलता है? '
" सुनकर सब कुछ उठा सुयोधन, इतना बोला,
संचित जो अब तक था मन में, उसको खोलाµ
' कुंजरपुर का राज्य कौरवों की थाती है,
फिर पांडव की बात यहाँ पर क्यों आती है?
' पाँच ग्राम की बात बड़ी है, केशव सुनिए,
सेमल की कच्ची रुई को यूँ मत धुनिए!
पाँच ग्राम क्या, सूई की भी नोंक बराबर,
देने वाला नहीं; नहीं दिखलाएँ वामर। '
" कह कर इतना निकल गया वह सभा-भवन से,
देखा था केशव ने उसको व्याकुल मन से।
करना नहीं सुयोधन को जो, वही कर गया,
शांतिदूत केशव के मन में रोष भर गया।
" कहा भीष्म से, ' अब तो कोई पंथ नहीं है,
एक अंत है, छोड़ इसे कुछ अन्त नहीं है।
कर्ण, दुशासन, दुर्योधन के संग शकुनि को,
बाँध, उतारंे ग्रह को साढ़े साती शनि के.
' सौंप इन्हें दें बंदी बनाकर पांडव को अब,
और किसी विध नहीं मानने वाले कौरव। '
दुष्ट हृदय के साथ शांति की बातें क्या हो,
चट्टानों को चीर बीज क्या बोना चाहो।
" पुनरनवी, जाना जब मैंने, टूट गया था,
शांति-मार्ग निश्चय ही पीछे छूट गया था।
लगा सोचने, केशव ने क्यों कहा वचन यह?
उनके तो अनुकूल नहीं था कभी कथन यह।
" क्या कृष्णा की बातों से वह रहे प्रभावित,
बची-खुची आशा भी अब तो दिखती शापित।
जब शापित हो पंथ-काल, तो क्या होना था,
मृदुल हास को अधरों पर सिमटा रोना था।
" जो केशव ने कहा, वही कुरुनंदन ने भी,
हो सकती थी संधि जहाँ संवादों से भी।
केशव को बन्दी करने की कूटनीति तब,
चढ़ी सुयोधन के माथे पर बनकर आसव।
' अगर कृष्ण को बंदी कर लें, पाण्डव हारे,
सोच नहीं सकते पांडव, कौरव संहारे। '
" पर सात्यकि को भनक लग गई कूटनीति की,
सभा अघोषित समर बन गई हार-जीत की।
" कृतवर्मा से कहा, ' तुरत सेना ले आए!
व्यूह रूप में उसे द्वार पर स्वयं लगाए! '
" फिर जाकर केशव से बोला ' यह भी सत् है,
दुर्योधन-षडयन्त्रा सिद्धि में उधर निरत है। '
" सुनते जागा क्रोध अनल-भव-तब केशव का,
लगा बदलने रूप काल-सा तब माधव का;
आँखों में जल उठी आग, बाहोें में सागर,
गर्म उसाँसों की लपटें पूर्वा को पाकर।
" ब्रह्मा झलका दिप्त भाल पर, रुद्र हृदय में,
कुरु का संशय हटा रहे, पर कुछ संशय में;
वाणी से ही बता गये सबको केशव यह,
' कैसे बड़वानल उगलेगा नील कमलदह।
' लोकपाल, आदित्य, मरुदगण, असुर, यक्ष तक,
सब मुझसे ही संचालित हैं, इसमें क्या शक।
मैं पांडव में, पांडव मुझमें, शक्ति-शिवालय,
पड़े अतल में क्या देखोगे तुंग हिमालय? '
" सबकुछ सुना सुयोधन ने, क्या सुन भी पाया?
कैसे सुनता अपने में खोया-बौराया!
शायद उसके कान तभी से बंद हुये थे,
भरी सभा में केशव ने जो वचन कहे थेµ
' कुल की रक्षा करनी हो, तो वहाँ पुरुष को,
और ग्राम की रक्षा में अपने कुल-कुश को।
मुदा जहाँ हो बात देश की, वहाँ ग्राम को,
फिर अपनी ही रक्षा में इस सृष्टि-धाम को;
' त्याग चलें, तो इसमें कुछ भी पाप कहाँ है?
न्याय-माप है यही, दूसरा माप कहाँ है?
कर्ण-सुयोधन को बंदी कर पांडव को दे,
इन्हें छोड़ कुरुनन्दन कुल पर पाप न लादे! '
" रहा सोचता केशव की बातों को अविरल,
उधर सभासद, भूप, मंत्राीगण बैठे निश्चल।
उठे सभा से कृष्ण, वहाँ से बाहर आए,
दुर्गद्वार पर मुझे देख हर्षित, मुसकाए.
" रथ पर मुझे बिठाया, फिर तो प्रेम भाव से,
सच कहता हूँ, भीग गया था उस लगाव से;
कोई इसे कहेगा, वंकिम चाल निराली,
चढ़ी हुई दिन की छाती पर रजनी काली।
" मुझसे बात हुई जो, हित ही वहाँ निहित था,
अगर कहीं कुछ था तो वह बिल्कुल किंचित था।
उनके मुँह से जन्मकथा अपनी, क्या बोलूँ,
कितनी बार हृदय की पीड़ा ऐसे खोलूँ!
" मेरे भावों, अनुभावों का आसन डोला,
उनकी बातों के उत्तर में इतना बोलाµ
' केशव, अपनी जन्मकथा से मैं परिचित हूँ,
पंचानन, गंगा के जल से मैं सिंचित हूँ।
' भले युधिष्ठिर, पार्थ, भीम सब अनुज रक्त से,
श्रेष्ठ मुझे ही मान मिलेंगे शुद्ध भक्ति से;
लेकिन क्या होगा कौरव का, जिसका बल मैं?
रुद्ध धमनियों और शिराओं की हलचल मैं।
' जिसने मुझको मित्रा कहा है, भाई बोला,
सूतपुत्रा कह कर न मन में विष को घोला;
" क्या होगा, जो प्राणों में है मुझे बसाए,
चलता है, अपने कन्धों पर मुझे उठाए.
' अब उसको ही छोड़ पांडवों से मैं मिल लूँ?
पारिजात-सा मान-सरोवर में जा खिल लूँ?
केशव, यह क्या आप कह रहे, सोचा न था,
रोक लीजिए, संधि-मिलन की अनुचित गाथा!
' राज-सिंहासन रिश्तों से ऊँचा क्या होता?
मैं वह नहीं, सिंहासन को कंधे पर ढोता।
क्या छोड़ेंगे आप पांडवों को, कहिए कुछ?
तो कैसे छोड़ ूँ कौरव को? मन क्या लुरपुच।
' कहिए केशव, इससे क्या सन्देश मिलेगा?
मित्रा-मित्रा के बीच अडिग विश्वास हिलेगा!
राजवंश में कूटनीति-छल खेल भले हो,
सत्ता के हित द्वेष-घृणा में मेल भले हो।
' लेकिन जो संन्यासी है, होकर भी भूपति,
उसको क्या ऐश्वर्य-भोग से किंचित हो रति!
केशव, मुझकोे ज्ञात सभी कुछ क्या होना है,
यश-अपयश-शुभ-हानि विषय पर क्या रोना है!
' इधर सुयोधन राज्य नहीं देने को तत्पर,
आधा क्या, बस सूई की भी नोंक बराबर,
और इधर माता कुन्ती की इच्छा अद्भुत,
तीनों लोकों का स्वामी हो अर्जुन अच्युत!
' यही कहा है माँ ने ही, कहिए क्या मिथ्या?
इससे तो सब शांति-संधि की होती हत्या।
सौरीघर में क्या भविष्यवाणी की माया,
अब जाकर माँ ने है जिसका सूत्रा उठाया।
' कौरव को कर नाश बनेगा अर्जुन अधिपति,
इससे अब तक नहीं हो सकी किंचित उपरति।
यह भी है विश्वास जननि का, आप सहायक,
पार्थविजय में केशव होंगे कष्टविनायक।
" फिर तो लगता है मुझको क्या संधि-वंधि यह,
शांतिदूत का आना-जाना महज भ्रांति यह।
अच्छा होगा, जो होना है, होने दीजे,
जो भावी है, उसमें देर नहीं ही कीजे!
' पर इसके संग सुने याचना यह भी मेरी,
जान न पाए पांडव मेरी व्यथा घनेरी!
मेरी जन्मकथा रखियेगा उनमें गोपन,
जानेंगे, तो राज्य छोड़ भटकेंगे निर्धन!
' क्षत्रिय हैं, क्षत्रियों का पहला खेल समर है,
हार-जीत या जन्म-मरण की कथा अमर है।
माँ की इच्छा: अर्जुन क्षत्रिय-धर्म निभाए,
मेरी भी इच्छा है, वह दिन देखूँ, आए! '
" पुनरनवी, सुनकर ये बातें केशव बोलेµ
गुस्से में मारुत से जैसे पल्लव डोलेµ
' तो फिर समझो, युद्ध छिड़ेगा निश्चय ही अब,
नाच रहा है जटा खोलकर उन्मत भैरव।
' महानाश का बादल अब खुल कर बरसेगा,
स्नेह धरा पर करुणा को सदियों तरसेगा;
शोणित के जो लेख लिखे जायेंगे भू पर,
उसके छींटे देख सकोगे लता-प्रसू पर।
' महाकाल के आवर्त्तन में देर न जानो,
घिरा आ रहा नभ में जो तम को पहचानो!
लौटो, कहना द्रोण, पितामह से यह आशय,
अभी आज से ठीक सातवें दिन ही निश्चय;
' महाकाल का नर्तन होगा अँधियाले में,
शोणित का सागर उमड़ेगा तम-प्याले में।
कर्ण, तुम्हारे सर पर इसका दोष चढ़ेगा,
सिर्फ सुयोधन के माथे पर नहीं अड़ेगा। '
" कहा कृष्ण से इतना ही तब मैंनेµ' सुनिए,
निर्धारित जो पूर्व समय से उसको गुनिएµ
पांडव के उस राजसूय के पूर्ण यज्ञ पर,
द्वैपायन श्रीकृष्ण-युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर।
' उत्तर क्या था, वर्ष तेरहवाँ जब आयेगा,
क्षत्रियों का संहार धरा पर बिछ जायेगा।
द्वैपायन की बात भला क्या खाली जाए,
इसमें कर्ण-सुयोधन क्यों दोषी कहलाए?
' कहिए केशव, कृष्णा ने जो कुछ बोला था,
सात्यकि ने वाणी से कितना विष घोला था,
और द्रुपद की कूटनीति को ज़रा खोलिए!
इस पर क्यों केशव यूं चुप हैं, मन टटोलिए.
' बैठे हैं पांडव-दल के सब समर बिछाए,
इसमें कर्ण-सुयोधन क्यों दोषी कहलाए? '
" फिर उत्तर की किए प्रतीक्षा बिन मैं बोला,
बड़े विनय के स्वर में अपना अन्तस खोलाµ
' केशव, अब तो महासमर मंे भेंट हमारी,
जीत-हार उसकी ही निश्चित, जिसकी बारी'
" इतना कहकर गले लगाया था केशव को,
उतर गया था रथ से रोके मन के रव को।
" लौटा राजमहल था लेकिन मन इस्थिर क्या?
स्वाप लगे आँखों के आगे आने, क्या-क्या!
हिरण कौरवों के बायें से भागे जाते,
पर पांडव की दायीं दिश से दौड़ लगाते।
" मित्रा सुयोधन के अश्वों की गीली आँखें,
पांडव रथ से जुते हयों की निकली पाँखें।
सात दिवस ही शेष अमावस के आने में,
समरभूमि में महाप्रलय के फट जाने में।
" महाकाल का रूप मुझे भी धरना होगा,
भारत को भी याद रहे, कुछ करना होगा।
पुनरनवी, यह पत्रा यहीं तक, शेष पुनः फिर,
तुमको भी कितना विचलित कर सकता आखिर।
" समर शेष होते ही चम्पा लौट चलूँगा,
अग्निकुंड है कुंजरपुर यह; नहीं जलूँगा"
देखा नभ की ओर कर्ण ने शीष उठाकर,
अपने मन को शरतकाल का मारुत पाकर;
पत्रा तीर के अग्र भाग से बँधा उठाया,
विजय धनुष की प्रत्यंचा पर उसे चढ़ाया;
खींचा, क्षण में छोड़ दिया चंपा के नभ पर,
उठा व्योम में, गिरा कर्ण के गढ़ में जा कर।
जहाँ साँझ को पुनरनवी बैठा करती है,
स्वप्नों के शत इन्द्रधनुष से घर भरती है,
वहीं गिरा था वाण, उसी के पास, पंख-सा,
पुनरनवी का गूँजा था मन मौन शंख-सा।